नई दिल्ली (मानवी मीडिया): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि महिलाओं की भलाई के लिए बनाए गए सख्त कानून उनके पतियों को “दंडित करने, धमकाने, उन पर हावी होने या उनसे जबरन वसूली करने” के लिए नहीं हैं। जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस पंकज मिथल की पीठ ने कहा कि हिंदू विवाह एक पवित्र परंपरा है, जो परिवार की नींव है, न कि एक व्यावसायिक समझौता।
पीठ ने वैवाहिक विवादों में भारतीय दंड संहिता की धाराओं, जैसे दुष्कर्म, आपराधिक धमकी और विवाहित महिलाओं से क्रूरता के मामलों में, अनुचित तरीके से शिकायत दर्ज कराने की प्रवृत्ति पर चिंता जताई। अदालत ने कहा कि महिलाओं को यह समझने की आवश्यकता है कि ये सख्त प्रावधान उनकी सुरक्षा और सशक्तिकरण के लिए हैं, न कि पतियों के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के लिए।
अदालत ने यह टिप्पणी एक दंपति के मामले में की, जिनकी शादी जुलाई 2021 में हुई थी और अब पूरी तरह टूट चुकी थी। पति, जो अमेरिका में आईटी कंसल्टेंट के तौर पर काम करता है, ने शादी समाप्त करने की याचिका दाखिल की थी। वहीं, पत्नी ने तलाक का विरोध करते हुए गुजारा भत्ता के रूप में पति की पहली पत्नी को मिले 500 करोड़ रुपये के बराबर रकम की मांग की थी। पीठ ने फैसला सुनाते हुए पति को एक महीने के भीतर पत्नी को 12 करोड़ रुपये स्थायी गुजारा भत्ता के रूप में भुगतान करने का निर्देश दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने उन मामलों पर विशेष चिंता व्यक्त की, जहां पत्नी और उसका परिवार आपराधिक शिकायतों का इस्तेमाल पति और उसके परिवार के साथ सौदेबाजी के लिए करते हैं। अदालत ने कहा कि पुलिस कई बार जल्दबाजी में कार्रवाई करते हुए पति और यहां तक कि वृद्ध माता-पिता व दादा-दादी जैसे रिश्तेदारों को गिरफ्तार कर लेती है।
अदालत ने अधीनस्थ न्यायालयों को भी सलाह दी कि वे एफआईआर में उल्लिखित “अपराध की गंभीरता” के आधार पर जमानत देने में अनावश्यक संकोच न करें। सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा कि आपराधिक कानूनों का उद्देश्य महिलाओं की सुरक्षा और सशक्तिकरण है, लेकिन इनका दुरुपयोग समाज में वैवाहिक संबंधों की पवित्रता को नुकसान पहुंचा सकता है।