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Friday, September 27, 2024

मस्जिदों पर सरकार का कंट्रोल नहीं, तो फिर मंदिरों पर क्यों है? सरकारी नियंत्रण का पूरा इतिहास समझिए


(मानवी मीडिया) : भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, लेकिन यहां धार्मिक स्थलों, विशेष रूप से हिंदू मंदिरों पर सरकार का नियंत्रण लंबे समय से बना हुआ है। यह एक ऐसी स्थिति है जो स्वतंत्रता पूर्व काल से चली आ रही है और वर्तमान समय में मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से 'मुक्त' करने की मांग लगातार बढ़ रही है। खासतौर से ये तर्क दिया जाता है कि जब मस्जिदों और चर्चों व अन्य धर्मों के धार्मिक स्थलों पर सरकार का कंट्रोल नहीं, तो फिर मंदिरों पर क्यों है? आज हम मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण का इतिहास और उन्हें 'मुक्त' करने की मांग को समझेंगे।

मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण कैसे हुआ? 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में लगभग 30 लाख पूजा स्थल हैं, जिनमें से अधिकांश हिंदू मंदिर हैं। राजा अक्सर मंदिरों को भूमि और धन दान करते थे, जो उस समय संस्कृति और अर्थव्यवस्था दोनों के केंद्र थे। मंदिरों के आसपास शहर विकसित हुए, जिससे क्षेत्र का विकास हुआ। हालांकि मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण का इतिहास ब्रिटिश काल से शुरू होता है। अंग्रेज मंदिरों को न केवल सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव के प्रवेश द्वार के रूप में देखते थे, बल्कि उन्हें अपार धन-संपत्ति का भण्डार भी मानते थे और इसलिए आधिकारिक निगरानी की आवश्यकता थी। 1810 से 1817 तक, उन्होंने बंगाल, मद्रास और बॉम्बे प्रेसिडेंसियों में कई कानून बनाए, जिससे उन्हें मंदिर प्रशासन में हस्तक्षेप करने का अधिकार मिल गया। 1863 में धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम पारित किया गया और मंदिरों का नियंत्रण अधिनियम के तहत नियुक्त समितियों को सौंप दिया गया।

19वीं शताब्दी में ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने धार्मिक संस्थानों पर नियंत्रण रखने के लिए कई कानून बनाए। इनका मुख्य उद्देश्य मंदिरों की संपत्ति को मैनेज करना और उन्हें कथित तौर पर भ्रष्टाचार से बचाना था। हिंदू मंदिरों पर पहला विशिष्ट कानून 1925 में आया। 1925 में मद्रास हिंदू धार्मिक और चैरिटेबल एंडोमेंट्स एक्ट  पास किया गया, जिसने दक्षिण भारत के मंदिरों को सीधे सरकार के अधीन कर दिया। मद्रास हिंदू धार्मिक एंडोमेंट्स एक्ट, 1925 मद्रास हिंदू धार्मिक एंडोमेंट्स एक्ट 1925 एक महत्वपूर्ण कानून था जिसे ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार द्वारा मद्रास प्रेसीडेंसी में हिंदू धार्मिक संस्थाओं के प्रबंधन और उनके संपत्ति के संचालन को नियंत्रित करने के लिए लागू किया गया था। ब्रिटिश हुकूमत का तर्क था कि कई धार्मिक संस्थानों में भ्रष्टाचार हो रहा था, और मंदिरों की संपत्ति का सही इस्तेमाल नहीं हो रहा था। अंग्रेजों ने ये भी कहा था कि मंदिरों की आय, जो धार्मिक और सामुदायिक कार्यों के लिए होती थी, उसे गलत तरीकों से इस्तेमाल किया जा रहा था। प्रमुख प्रावधान बोर्ड का गठन: इस एक्ट के तहत, एक बोर्ड का गठन किया गया, जिसे "हिंदू धार्मिक एंडोमेंट्स बोर्ड" कहा गया। यह बोर्ड विभिन्न मंदिरों और धार्मिक संस्थाओं की देखरेख करता था। इसमें सरकारी प्रतिनिधि और धार्मिक समुदाय से जुड़े लोग शामिल थे, जिनका काम मंदिर की आय, संपत्ति और धार्मिक कृत्यों का प्रबंधन करना था।

मंदिरों की संपत्ति का प्रबंधन: इस कानून के तहत मंदिरों की संपत्ति को एक ट्रस्ट की तरह माना गया, और उसकी आय का सही इस्तेमाल सुनिश्चित करने के लिए बोर्ड को अधिकार दिए गए। मंदिरों की आय को धर्मार्थ उद्देश्यों और धार्मिक कार्यों के लिए इस्तेमाल करने की दिशा दी गई।पुजारियों का चयन और प्रबंधन: मंदिर के पुजारियों और अन्य कर्मचारियों की नियुक्ति और उनके काम की निगरानी का जिम्मा भी बोर्ड के पास था। यह सुनिश्चित किया गया कि धार्मिक कार्य सुचारू रूप से चलें और इसमें किसी भी तरह का भ्रष्टाचार न हो। धार्मिक और धर्मार्थ कार्य: मंदिरों की आय को केवल धार्मिक कार्यों, धार्मिक अनुष्ठानों, और धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने का प्रावधान था। कई लोगों का मानना था कि सरकार का धार्मिक संस्थानों में हस्तक्षेप अनुचित है और यह मंदिरों की स्वतंत्रता का उल्लंघन है। यह तर्क दिया गया कि मंदिरों का प्रबंधन धार्मिक समुदाय के सदस्यों के हाथों में होना चाहिए न कि सरकारी अधिकारियों के अधीन।

आजादी के बाद क्या हुआ? स्वतंत्रता के बाद भी यह परंपरा जारी रही। स्वतंत्र भारत की सरकार ने मंदिरों के प्रबंधन में पारदर्शिता और उनके संसाधनों का सदुपयोग सुनिश्चित करने के उद्देश्य से कई कानून बनाए। इस तरह का पहला अधिनियम 1951 का मद्रास हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम था। उसी समय बिहार में भी इसी तरह का कानून पारित किया गया था। मद्रास कानून को अदालतों में चुनौती दी गई, जिन्होंने इसे खारिज कर दिया और अंततः 1959 में कुछ संशोधनों के साथ एक नया अधिनियम पारित किया गया। अधिकांश दक्षिणी राज्य मंदिरों को नियंत्रित करने के लिए समान कानूनी संरचनाओं का पालन करते हैं। कई राज्यों ने हिंदू पूजा स्थलों में समाज के सभी वर्गों और जातियों के प्रवेश को सुनिश्चित करने के लिए मंदिरों के प्रबंधन में सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता पर तर्क दिया। इसके परिणामस्वरूप विभिन्न राज्यों में मंदिरों का सरकारीकरण किया गया, विशेषकर दक्षिण भारतीय राज्यों में। वर्तमान में, तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों में कई बड़े मंदिर सरकार के अधीन हैं।

मंदिरों को मुक्त करने की मांग मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की मांग कोई नई नहीं है। इसे लेकर हिंदू संगठनों और धार्मिक नेताओं ने कई बार आवाज उठाई है। मंदिरों की संपत्ति और आय का उपयोग किस तरह से हो रहा है, इसे लेकर सवाल उठाए जाते रहे हैं। तर्क यह दिया जाता है कि सरकार का हस्तक्षेप मंदिरों के धार्मिक और सांस्कृतिक उद्देश्यों को प्रभावित करता है और इसकी आय का दुरुपयोग होता है।

1959 में, आरएसएस ने पहला प्रस्ताव पारित किया जिसमें मांग की गई कि मंदिर का नियंत्रण समुदाय को वापस सौंप दिया जाए। काशी विश्वनाथ मंदिर पर एक प्रस्ताव में, आरएसएस की शीर्ष निर्णय लेने वाली बैठक अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा (एबीपीएस) ने कहा, "सभा उत्तर प्रदेश सरकार से इस मंदिर को हिंदुओं को वापस करने के लिए कदम उठाने का आग्रह करती है ... जीवन के विभिन्न क्षेत्रों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपना नियंत्रण और एकाधिकार स्थापित करने की सरकार की प्रवृत्ति पिछले कुछ वर्षों में अधिक से अधिक स्पष्ट होती जा रही है।"

मंदिरों की स्वतंत्रता की मांग मुख्य रूप से इस तर्क पर आधारित है कि मस्जिदों और चर्चों का प्रबंधन सरकार नहीं करती है, तो फिर मंदिरों पर यह नियम क्यों लागू होता है? हिंदू संगठनों का मानना है कि मंदिरों का प्रबंधन धार्मिक समुदाय के हाथों में होना चाहिए और सरकार को इससे दूरी बनानी चाहिए।

हालांकि मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने के पक्ष में कानूनी दलीलें दी गई हैं। वरिष्ठ वकील फली नरीमन और राजीव धवन ने एक बार इस नियंत्रण की आलोचना करते हुए इसे "धार्मिक बंदोबस्ती का राष्ट्रीयकरण" बताया था - लेकिन अदालतें इस मामले में हस्तक्षेप करने में काफी हद तक अनिच्छुक रही हैं। 1954 के शिरुर मठ मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि ऐसा कानून जो धार्मिक संप्रदाय के प्रशासन के अधिकार को पूरी तरह से छीन लेता है और इसे किसी अन्य प्राधिकरण को सौंप देता है, वह अनुच्छेद 26 के खंड (डी) के तहत गारंटीकृत अधिकार का उल्लंघन होगा। हालांकि, इसने माना कि राज्य के पास धार्मिक या धर्मार्थ संस्थान या बंदोबस्ती के प्रशासन के अधिकार को विनियमित करने का सामान्य अधिकार है।

प्रमुख घटनाक्रम तमिलनाडु मामला: तमिलनाडु में मंदिरों को मुक्त करने की मांग लंबे समय से चल रही है। हाल ही में, भारतीय जनता पार्टी और अन्य हिंदू संगठनों ने इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया है। उनका तर्क है कि सरकार मंदिरों की आय का उपयोग सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए करती है, जबकि यह राशि धार्मिक कार्यों के लिए होनी चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप: मंदिरों की स्वतंत्रता की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में भी कई याचिकाएं दाखिल की गई हैं। अदालत ने कई मामलों में मंदिरों के प्रबंधन में सुधार की जरूरत पर जोर दिया है, लेकिन अभी तक किसी ठोस निर्णय पर नहीं पहुंचा गया है जो सभी राज्यों पर लागू हो।

केरल का श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर मामला: केरल का प्रसिद्ध श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर भी लंबे समय से विवादों में रहा है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर के ट्रस्ट और उसके वित्तीय प्रबंधन पर निर्णय देते हुए कहा कि यह मंदिर प्रबंधन अब एक पारिवारिक ट्रस्ट के अधीन रहेगा, जिससे मंदिरों की स्वतंत्रता की दिशा में एक सकारात्मक कदम माना गया। श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर का प्रबंधन और नियंत्रण त्रावणकोर के पूर्व शाही परिवार के पास है। सुप्रीम कोर्ट ने 13 जुलाई, 2020 को केरल उच्च न्यायालय के जनवरी 2011 के फैसले को पलट दिया था। इस फैसले में कहा गया था कि राज्य सरकार को मंदिर का नियंत्रण अपने हाथ में लेना चाहिए था। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद, मंदिर के प्रबंधन की ज़िम्मेदारी त्रावणकोर के पूर्व शाही परिवार को सौंपी गई

भारत में धार्मिक स्थलों का संचालन कैसे होता है? भारत में धार्मिक स्थलों का संचालन विभिन्न तरीकों से किया जाता है। यह मुख्य रूप से उस धर्म और स्थान पर निर्भर करता है, जहां वह धार्मिक स्थल स्थित है। यहां हम प्रमुख धर्मों के धार्मिक स्थलों के संचालन के सामान्य ढांचे को देखेंगे।

1. हिंदू मंदिर भारत में हिंदू मंदिरों का संचालन मुख्यतः दो तरीकों से होता है – सरकारी और निजी प्रबंधन।

सरकारी नियंत्रण: भारत के कुछ राज्यों, विशेषकर दक्षिण भारत में, कई मंदिरों का संचालन सरकार द्वारा किया जाता है। जैसे तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, और केरल में कई बड़े मंदिर सरकारी विभागों द्वारा संचालित होते हैं। इन राज्यों में "हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ एंडोमेंट्स कानून के तहत मंदिरों का प्रबंधन होता है। मंदिरों की आय, संपत्ति, और धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन सरकार द्वारा नियंत्रित किया जाता है, हालांकि दैनिक पूजा और धार्मिक कृत्य मंदिर के पुजारी और ट्रस्टियों द्वारा संचालित होते हैं।

निजी/ट्रस्ट आधारित प्रबंधन: कई मंदिरों का प्रबंधन निजी ट्रस्टों या परिवारों द्वारा किया जाता है। प्रसिद्ध मंदिर जैसे कि वाराणसी का काशी विश्वनाथ मंदिर या हरिद्वार का हर की पौड़ी गंगा मंदिर निजी ट्रस्टों द्वारा चलाए जाते हैं। इन मंदिरों की आर्थिक आय और संचालन का जिम्मा इन ट्रस्टियों के पास होता है, हालांकि इनमें से कुछ मंदिर सरकार के दिशा-निर्देशों के तहत आते हैं।

2. मस्जिदें भारत में मस्जिदों का संचालन मुख्य रूप से समुदाय और वक्फ बोर्डों के माध्यम से किया जाता है।

वक्फ बोर्ड: मस्जिदों की संपत्तियों का प्रबंधन राज्य वक्फ बोर्ड के अधीन होता है। वक्फ बोर्ड मुस्लिम धार्मिक स्थलों की संपत्तियों का प्रबंधन करता है और मस्जिदों की देखरेख में मदद करता है। मस्जिद के इमाम और मौलवी धार्मिक अनुष्ठानों का संचालन करते हैं, लेकिन संपत्ति के रखरखाव और वित्तीय मामलों में वक्फ बोर्ड का हस्तक्षेप होता है।

समुदाय आधारित संचालन: छोटे स्तर पर, मस्जिदों का प्रबंधन स्थानीय मुस्लिम समुदाय द्वारा किया जाता है। यहां नमाज, धार्मिक अनुष्ठान और मस्जिद के रखरखाव की जिम्मेदारी समुदाय द्वारा निभाई जाती है। मस्जिद की आय समुदाय के दान और ज़कात (दान) से होती है।

3. गुरुद्वारे सिख धर्म के धार्मिक स्थल, जिन्हें गुरुद्वारे कहा जाता है, मुख्य रूप से शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (SGPC) के अधीन होते हैं। SGPC पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, और चंडीगढ़ में स्थित प्रमुख गुरुद्वारों का संचालन करता है।

SGPC का प्रबंधन: SGPC गुरुद्वारों की आय, धार्मिक अनुष्ठानों, लंगर (मुफ्त भोजन), और अन्य सेवा गतिविधियों का प्रबंधन करता है। यह संस्था सिख धर्म के प्रमुख धार्मिक स्थलों जैसे कि अमृतसर के स्वर्ण मंदिर (हरमंदिर साहिब) का संचालन करती है।

स्थानीय गुरुद्वारे: छोटे गुरुद्वारे स्थानीय सिख संगत (समुदाय) द्वारा चलाए जाते हैं, और इनका संचालन स्थानीय स्तर पर चुनी गई कमेटियों द्वारा किया जाता है।

4. चर्च भारत में ईसाई धर्म के धार्मिक स्थलों, जैसे चर्चों का संचालन मुख्य रूप से विभिन्न ईसाई मिशनरी संगठनों और चर्च प्रशासन द्वारा किया जाता है।

कैथोलिक चर्च: कैथोलिक चर्च का प्रबंधन पोप के अधीन होता है और इसे कैथोलिक बिशपों की काउंसिल द्वारा संचालित किया जाता है। चर्च के आर्थिक मामलों, शिक्षा और धार्मिक सेवाओं का प्रबंधन चर्च की स्थानीय इकाइयों द्वारा किया जाता है। प्रोटेस्टेंट चर्च: प्रोटेस्टेंट चर्च स्वतंत्र रूप से या संबंधित संगठनों द्वारा प्रबंधित होते हैं। यहां भी चर्च की संपत्ति और संचालन का जिम्मा स्थानीय समुदाय या चर्च के नेताओं द्वारा देखा जाता है।

5. बौद्ध और जैन मठ बौद्ध और जैन धर्म के धार्मिक स्थल, जैसे मठ और विहार, आमतौर पर धार्मिक ट्रस्टों द्वारा संचालित होते हैं। इन स्थलों का प्रबंधन मुख्य रूप से धार्मिक नेता या संगठनों द्वारा किया जाता है।

बौद्ध मठ: बौद्ध मठों का संचालन बौद्ध भिक्षुओं और संगठनों द्वारा किया जाता है। इन मठों की आय दान, अंतर्राष्ट्रीय अनुदान, और पर्यटकों से होती है।

जैन मंदिर: जैन मंदिरों का संचालन जैन समुदाय द्वारा प्रबंधित ट्रस्टों द्वारा किया जाता है। जैन मंदिरों के प्रबंधन में पारदर्शिता और धार्मिक प्रथाओं का पालन प्रमुख होता है।

भारत में धार्मिक स्थलों का संचालन धर्म और समुदाय के आधार पर अलग-अलग होता है। कुछ स्थल सरकारी नियंत्रण में हैं, जबकि कुछ का प्रबंधन निजी ट्रस्टों या समुदायों द्वारा किया जाता है। भारत में धार्मिक स्थलों का धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व होने के कारण, उनका संचालन एक महत्वपूर्ण और जटिल प्रक्रिया है। वर्तमान समय में हिंदू संगठनों द्वारा इस मुद्दे को राजनीतिक और सांस्कृतिक स्तर पर प्रमुखता से उठाया जा रहा है। हालांकि, इस पर अंतिम निर्णय जनता और न्यायपालिका के हाथ में रहेगा कि मंदिरों का प्रबंधन कौन और कैसे करे। मंदिरों की स्वतंत्रता को लेकर बढ़ते आंदोलन और इस मुद्दे पर जारी बहस भारतीय राजनीति और समाज पर दूरगामी प्रभाव डाल सकती है। इसे लेकर आने वाले समय में और भी बदलाव देखने को मिल सकते हैं।

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