लखनऊ : (मानवी मीडिया) पानी में आर्सेनिक और विषाक्त तत्व मिलने की समस्या तो आरओ फिल्टर से दूर की जा सकती है, लेकिन आर्सेनिक अब फसलों तक पहुंच रहा है। मुख्य रूप से चावल में आर्सेनिक पाया जा रहा है, जिसका सेवन लोगों को बीमार कर सकता है। लखनऊ विश्वविद्यालय के केमिस्ट्री विभाग की प्रो. सीमा मिश्रा के शोध में न सिर्फ इस समस्या का खुलासा हुआ बल्कि उन्होंने इससे बचाव का भी रास्ता बताया है।
शोध के मुताबिक अगर चावल को पकाने का तरीका बदल लिया जाए तो इससे बचाव हो सकता है। प्रो. सीमा का यह शोध 'साइंस ऑफ द टोटल इन्वॉयरनमेंट' में प्रकाशित हुआ है। एलयू में शनिवार को 'बूस्ट योजना' के तहत शोध करने वाले 50 शिक्षकों को सम्मानित किया गया था। सम्मानित होने वालीं प्रो. सीमा ने बताया कि आर्सेनिक अब अनाजों में भी पाया जा रहा है। हमने चावल पर शोध किया तो आर्सेनिक की मौजूदगी सामने आई।
इससे बचने के लिए चावल को पकाने से पहले आधे घंटे पानी में भिगो दें। फिर उसके पानी को फेंककर दो-तीन पानी से ठीक से धो लें। इसके बाद चावल को भगौने में पकाएं और उबालने के बाद चावल के बचे हुए पानी को भी फेक दें, फिर थोड़ा और पकाएं। इस विधि से पके चावल में आर्सेनिक व विषाक्त पदार्थों के प्रभाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है। कुकर में चावल पकाने से विषाक्त तत्व उसी में रह जाते हैं।
यह 'डिटेक्शन किट' घरों में रसोई गैस यानी LPG लीक का पता लगाती है। प्रो. पांडेय ने बताया कि किट में मेटल ऑक्साइड की पतली फिल्म का उपयोग किया गया है। गैस के संपर्क में आते ही उसका रेजिस्टेंस बदल जाता है। इलेक्ट्रॉनिक सर्किट इसे डिटेक्ट करके अलार्म बजाता है, जिससे लीकेज का पता चला है। उन्होंने बताया कि वर्तमान में जो डिवाइस आ रही है वह एक हजार रुपये तक में मिल रही है। इस किट का मास प्रॉडक्शन किया जाए तो लोगों को 100-150 रुपये में उपलब्ध हो जाएगी। यह शोध 'एल्जेवियर' में प्रकाशित हुआ है।
ओमेगा-3 रोकता है कैंसर
जुलॉजी विभाग के हेड प्रो. सिराजु्द्दीन ने मछली के सेवन से कैंसर से बचाव पर शोध किया है। प्रो. सिराजुद्दीन ने बताया कि मछली में ओमेगा-3 फैटी एसिड पाया जाता है। कैंसर सेल को हमने लैब में कल्चर कर फिर उसे ओमेगा-3 फैटी एसिड से ट्रीट किया। इससे कैंसर सेल की ग्रोथ रुक गई। ओमेगा-3 फैटी एसिड दालों में भी पाया जाता है, लेकिन मछली में इसकी मात्रा सबसे अधिक होती है। यही वजह है जो लोग मछली का सेवन अधिक करते हैं उनमें या तो कैंसर कम होता है या उतना प्रभावी नहीं होता, जितना अन्य मरीजों में होता है। यह शोध 'न्यूट्रिशन एंड कैंसर जरनल' में प्रकाशित हुआ है।