भारत : (मानवी मीडिया) तिब्बती आध्यात्मिक नेता 14वें दलाई लामा ने गुरुवार को कहा कि तिब्बतियों को उनके अपने देश के विपरीत भारत में पूरी आजादी है। उन्होंने कहा कि तिब्बती लोगों पर उनके अपने देश में "बहुत ज्यादा नियंत्रण है"। दलाई लामा ने सिलीगुड़ी में पत्रकारों से बात करते हुए कहा, "हम तिब्बती शरणार्थी बन गए। हमारे अपने देश में बहुत नियंत्रण है। लेकिन यहां भारत में हमें आजादी है।" तिब्बती आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने अपने निर्वासन और चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जा करने के बारे में बोलते हुए कहा यह टिप्पणी की। बता दें कि 14वें दलाई लामा की बात करें तो उनका बचपन का नाम तेनजिन ग्यात्सो है। उनका जन्म 6 जुलाई, 1935 को उत्तरपूर्वी तिब्बत के एक छोटे से गाँव तकत्सेर में हुआ था। तिब्बती बौद्ध धर्म के आध्यात्मिक नेता के रूप में पहचाने जाने वाले, दलाई लामा ने तिब्बत के राजनीतिक और धार्मिक मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 1950 में, जब तेनजिन ग्यात्सो सिर्फ 15 साल के थे,
तो पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना ने तिब्बत पर आक्रमण कर दिया। चीनी अधिकारियों के साथ बढ़ते तनाव के बीच, दलाई लामा ने 1954 में 19 साल की उम्र में पूर्ण राजनीतिक सत्ता संभाली। 1959 में, तिब्बत में चीनी शासन के खिलाफ असफल विद्रोह के बाद, दलाई लामा भारत भाग गए, जहां उन्हें शरण दी गई। उन्होंने भारत के उत्तरी राज्य हिमाचल प्रदेश के एक शहर धर्मशाला में निर्वासित तिब्बती सरकार की स्थापना की और तब से वहीं रह रहे हैं।
दलाई लामा ने सिलिगुड़ी में आगे कहा, "चूंकि तिब्बती संस्कृति बहुत हद तक नालंदा परंपरा से संबंधित है, इसलिए, हम उन हजार साल पुरानी परंपराओं, मुख्य रूप से सोचने के तरीके और मनोविज्ञान को संरक्षित कर रहे हैं।" दलाई लामा ने कहा, "जब हम क्रोधित या ईर्ष्यालु होते हैं तो मन की शांति बनाए रखने के लिए हमारे पास कई तरीके हैं, हम जानबूझकर इसे कम करने की कोशिश करते हैं। मैं इसे तिब्बती बौद्ध संस्कृति मानता हूं, लेकिन यह हर इंसान के लिए प्रासंगिक हो सकता है।"
दलाई लामा ने सिलिगुड़ी में आगे कहा, "चूंकि तिब्बती संस्कृति बहुत हद तक नालंदा परंपरा से संबंधित है, इसलिए, हम उन हजार साल पुरानी परंपराओं, मुख्य रूप से सोचने के तरीके और मनोविज्ञान को संरक्षित कर रहे हैं।" दलाई लामा ने कहा, "जब हम क्रोधित या ईर्ष्यालु होते हैं तो मन की शांति बनाए रखने के लिए हमारे पास कई तरीके हैं, हम जानबूझकर इसे कम करने की कोशिश करते हैं। मैं इसे तिब्बती बौद्ध संस्कृति मानता हूं, लेकिन यह हर इंसान के लिए प्रासंगिक हो सकता है।"