सविधान ने 14 सितंबर,1949 को हिंदी को भारत की राजभाषा घोषित किया गया था।भारतीय सविधान के भाग 17 के अध्याय की धारा 343(1) में लिखा है"संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी" ।परंतु कई गुटो जैसे द्रवीदार कझगम, पेरियार और डीएमके ने हिंदी के विरोध में दक्षिणी राज्यों में आंदोलन चलाए तथा जनमानस को भ्रमित किया।एक कदम आगे बढ़कर 13 अक्टूबर को 1957 को हिंदी विरोध दिवस के रूप में मनाया।
पंडित जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, मोरार जी देसाई जैसे कई अन्य नेता तो ये चाहते थे कि हिंदी को राष्ट्र भाषा होने का दर्जा प्राप्त हो परंतु हिंदी विरोधी आंदोलन अब दंगो का रूप लेने लगा था। इसी कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने हिन्दी को अंग्रेजी के साथ ही चलाने का निर्णय लिया और ये परिपाटी वर्तमान समय में भी चली आ रही है।
एक तरफ तो तुच्छ राजनीति के कारण हिंदी केवल राजभाषा ही बनकर रह गई दूसरी तरफ आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम स्वयं हिंदी की वर्तमान दुर्दशा के लिए उत्तरदायी है।अभिनेता मनोज बाजपेई ने ठीक ही कहा है,"अंग्रेजी को भारत में कभी एक भाषा के रूप में नहीं बल्कि एक स्किल के रूप में प्रस्तुत किया गया" जिसे अंग्रेजी का ज्ञान नहीं वह विकास की दौड़ में सदैव स्वयं को निम्न पायदान पर ही पाता है।आप जब कही पर अपनी ही मातृ भाषा का प्रयोग करने लगते है तो आस पास के लोग आपको ही तुच्छ दृष्टि से देखने लगते है।
कितना ही विरोधाभाषी तथ्य है कि धारावाहिक और फिल्म तो हिंदी ही देखना पसंद करते है पर उसी हिंदी के प्रयोग में हमें लज्जा का अनुभव होता है। यूपीएससी जैसे प्रतिष्ठित परीक्षा में अब हिंदी पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की संख्या दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है।
आज भारत को फिर से ऐसे जन आंदोलन की आवश्यकता है जो हिन्दी को उसका यथेष्ठ सम्मान दिला सके। हिन्दी भारतीयों के मनोभावों को व्यक्त करने में पूर्णतया सक्षम है। केवल दृढ़ इच्छाशक्ति से ही यह संभव है।
हो हास, हिन्दी से
हो परिहास हिन्दी से
हो राग हिन्दी से
हो होली का फाग
हिन्दी से
बन जाए हिन्दी जन जन की भाषा,
यही है हम सबकी अभिलाषा।।
कंचन सिंह
सहायक अध्यापिका
प्रा वि जलालपुर बछरावा रायबरेली