आज सिपाहिलाल की मड़ई में बैठकर पी गयी उनके घर की चाय ने फिर एहसास दिलाया कि घाघरा की भाषा भले कठिन हो लेकिन उसे गांजर के व्याकरण से पढ़ा और समझा जा सकता है......इतना स्नेह और दुलार...धन्य हैं यहाँ के निवासी और अनमोल है उनका प्रेम।बार-बार मना।करने पर भी हाथ से बेना झलते रहे और मैं कथरी बिछे तख्ते पर बैठ उनकी मिठास को अपने मन में उतारता रहा। चाय बनाकर हाथ में थमा देते हैं और बोलते हैं कि 'साहब,तनिका भर तौ बा'... चाय थामते ही मन मोती महल या हजरतगंज के रॉयल कैफ़े से उचट सा जाता है और गांजर-गांजर हो जाता है।
बाढ़ क्षेत्र में जाने पर ऐसा लगता है कि यह एक अलग दुनिया है जहाँ जीवन कठिन लेकिन जीवनदर्शन सरल है।जब मड़ई के सामने गाड़ी रुकती है तो उसमें बैठे सिपाहीलाल 'अरे हमार साहब आय गए' कहकर कथरी लेकर दौड़ पड़ते हैं और पास पड़े तख्त पर बिछा देते हैं।बिना बैठाए नहीं मानते हैं और ऐसे में कोई भी जो इंसान होगा वह इस निःस्वार्थ स्नेह,दुलार,प्रेम के वशीभूत क्यों न हो जाएगा !
थोड़ी देर बैठकर दुर्गापुरवा की ओर बढ़ गया और परियोजना का निरीक्षण किया गया तथा पिछली बाढ़ से कटने से बच गए मकानों के परिवारों के साथ कुछ समय बिताया गया। लेकिन इस अवशेष मजरे में घाघरा की धार से अविजित जीवविज्ञान की भाषा में कहें तो एक निर्जीव किन्तु लाइबनीज के चेतना सिद्धांत को मानें तो एक जीवट योद्धा भी खड़ा देखा जो पिछली बाढ़ की तेज कटान में घाघरा की धारा के बीच लड़ता हुआ आज भी अविजित है.....।ईंट से निर्मित एक कुँआ जस का तस खड़ा है और उसके आसपास की भूमि नदी में समा गई है।कुँआ मानों कह रहा हो कि प्यास बुझाने का उसका संस्कार व इतिहास घाघरा की धारा से कहीं अधिक मजबूत है भले ही घाघरा ने भूमि को निगल लिया हो लेकिन जलधारक को जल नहीं निगल सकता,यह प्रदर्शित हो रहा है।
इस बीच गोधूलि हो चुकी है और गोलोककोडर क्षेत्र में सोलर लाइट (जो निजी स्तर पर छोटी-छोटी फोटोवोल्टिक प्लेट्स से जलती हैं) जगमगा गयी हैं और बच्चे अपने शरीर में लगी बालू व धूल को झाड़ने में लग गए हैं हालाँकि उन्हें हाइजेनिक कांसेप्ट का अत्याधुनिक शिगूफा अभी प्रभावित नहीं कर पाया है। वास्तव में बालू केवल इसलिए झाड़ रहे कि कथरी बिना गन्दी हुए कुछ दिन चल जाए।
बाढ़ क्षेत्र रेउसा से दुलार की एक और डोर बाँधकर और उन्हें तमाम ऐसे भरोसे दिलाकर वापस निकल आया हूँ जो सदियों से उनसे किये जाते रहें हैं जिनमें से कुछ तो पूरे होते हैं और कुछ घाघरा की कठिन भाषा के बीच फँसकर अगले साल के भरोसे की बासी किश्त में शामिल हो जाते हैं।
विपिन सिंह भदौरिया
सीतापुर