वह झारखण्ड की प्रथम महिला राज्यपाल रही हैं। वर्ष 2000 से 2004 तक ओडिशा विधानसभा में रायरंगपुर से विधायक तथा राज्य सरकार में मंत्री भी रहीं। भारतीय जनता पार्टी और बीजू जनता दल की गठबन्धन सरकार में 6 मार्च 2000 से 6 अगस्त 2002 तक वाणिज्य और परिवहन के लिए स्वतंत्र प्रभार की राज्य मंत्री तथा 6 अगस्त 2002 से 16 मई 2004 तक मत्स्य पालन और पशु संसाधन विकास राज्य मंत्री रहीं। ओडिशा के मयूरभंज जिले की रहने वाली द्रौपदी मुर्मू ओडिशा में दो बार रायरंगपुर विधानसभा क्षेत्र से भाजपा विधायक रही हैं।वह भाजपा-बीजू जनता दल की ओडिशा में बनी गठबंधन सरकार में मंत्री भी रह चुकी हैं। उस समय झारखंड के प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष और कोडरमा से सांसद रवीन्द्र राय का कहना था कि- "बीजेपी के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार ने देश के आदिवासी समुदाय को उनका हक देने के प्रयास के तहत एक आदिवासी महिला नेता को राज्यपाल बनाया है। इससे पूरे देश में ही नहीं, विश्व में भी अच्छा संदेश जाएगा"। द्रौपदी मुर्मू से पहले झारखंड के गठन के बाद 15 नवंबर, 2000 को प्रभात कुमार यहां के पहले राज्यपाल बने थे। उनके बाद वी.सी. पांडे, एम. रामा जोइस, वेद मारवाह, सैयद सिब्ते रजी, के. शंकरनारायणन, एम. ओ. एच. फ़ारूक और डॉ. सैयद अहमद यहां के राज्यपाल रहे।
अब बात करते हैं विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार यशवंत सिन्हा के बारे में। राज खन्ना, शरद पवार, फारुख अब्दुल्ला और गोपाल कृष्ण गांधी के इंकार के बाद विपक्ष की ओर से राष्ट्रपति पद के लिए आखिरी नाम यशवंत सिन्हा का था। पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव के पूर्व तृणमूल कांग्रेस से जुड़ने वाले सिन्हा का किसी बेहतर समायोजन के लिए इंतजार लंबा खिंचता जा रहा था। मार्च 2021 में जब वे तृणमूल से जुड़े थे, उस समय उनकी नई पार्टी, भाजपा के आक्रामक प्रचार अभियान के दबाव में थी। यशवंत सिन्हा ने उस मौके पर अपने पुराने दल पर जबरदस्त पलटवार किए थे। तृणमूल की जबरदस्त जीत के बाद उम्मीद की जा रही थी कि पार्टी उन्हें राज्यसभा में भेज देगी। पर ऐसा मुमकिन नहीं हुआ। बेशक पार्टी ने यशवंत सिन्हा को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना रखा था। लेकिन शोभा के इस पद पर वे हाशिए पर लगभग राजनीतिक तौर पर अज्ञातवास में थे। राष्ट्रपति पद के लिए विपक्ष के साझा उम्मीदवार के तौर पर चयन ने यशवंत सिन्हा को एक बार फिर चर्चा के केंद्र में ला दिया है। 1960 बैच के आइ.ए.एस. यशवंत सिन्हा ने 24 साल प्रशासनिक जिम्मेदारियों के अनेक पद संभालते हुए बिताए थे। इसी दौरान वह चन्द्रशेखर के संपर्क में आये । 1984 में चन्द्रशेखर ने उन्हें हजारीबाग से जनता पार्टी का लोकसभा का टिकट दिया । तब सयुंक्त बिहार के जनता पार्टी नेताओं ने इसका प्रबल विरोध किया था। शुभघड़ी में जब सिन्हा नामांकन के लिए पहुंचे तो जनता पार्टी के झंडों और समर्थकों की भीड़ ने उन्हें काफी उत्साहित किया था। पर नजदीक पहुंचने पर उन्हें पता चला कि यह समर्थन उनके लिए नही बल्कि पार्टी टिकट की प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार रमणिका गुप्ता के लिए है। निराश सिन्हा को वहां मौजूद अपने इक्का-दुक्का समर्थकों की सलाह पर उस शुभ घड़ी में नामांकन का इरादा छोड़ना पड़ा था।चन्द्रशेखर के वरदहस्त के कारण हालांकि सिन्हा टिकट की लड़ाई में जीत गए थे लेकिन मतदाताओं ने उन्हें निराश किया। उस चुनाव में उन्हें लगभग साढ़े दस हजार वोट मिले थे। प्रारंभिक विफलता के बाद भी चंद्रशेखर की निकटता ने उनकी राजनीतिक तरक्की के रास्ते खोले। संगठनात्मक जिम्मेदारियों के साथ ही 1988 में जनता पार्टी और भाजपा के समझौते में वह राज्यसभा पहुंचे। चन्द्रशेखर सरकार में वह पहली बार देश के वित्तमंत्री बने। हालांकि इस छोटे से कार्यकाल में देश का सोना गिरवी रखने का विवादित फैसला लगातार उन्हें परेशान करता रहा। 1993 में भाजपा से जुड़ने के बाद यशवंत सिन्हा लम्बे अरसे तक अपने राजनीतिक गुरु और संरक्षक चन्द्रशेखर का सामना करने से बचते रहे। सिन्हा ने अपनी आत्मकथा RELENTLESS में लिखा है कि उनके लिए चन्द्रशेखर का साथ छोड़ना बेहद तकलीफदेह और मुश्किल फैसला था। काफी हिम्मत बटोरने के बाद जब वह भोंडसी आश्रम में चन्द्रशेखर के सामने बैठे थे तो असहज सन्नाटे को चन्द्रशेखर ने ही तोड़ा था। चन्द्रशेखर ने सिन्हा से कहा था कि संघ की पृष्ठभूमि न होने के कारण वह भाजपा में शिखर पर पहुंचने की उम्मीद न करें। सिन्हा के अनुसार जब कुछ मित्र मेरे विषय में और साथ छोड़ने का चंद्रशेखर से कारण पूछते तो वह एक कहानी यों बयान करते , ' अपने एक मित्र की बीमारी और उसके अस्पताल में भर्ती होने की खबर पाकर मैं चिंतित हो गया। मेरी चिंता तब और बढ़ गई जब मुझे पता चला कि वह क्षय रोग (टी.बी) वार्ड में भर्ती हुआ है। मेरे वहाँ पहुंचने पर उसने बताया कि चिंतित होने जैसी बात नही है। उसे मामूली खांसी और जुकाम है। अस्पताल में अन्य किसी वार्ड में बेड खाली नही था। टी.बी. वार्ड में बेड खाली मिला। इसलिए उसमे दाखिल हो गया। यद्यपि यह वार्ड सिन्हा की राजनीतिक सेहत के लिए खूब फला। 1995 में भाजपा टिकट पर वह बिहार विधान सभा के लिए चुने गए। नेता विपक्ष बनाये गए। 1998 और 1999 में हजारीबाग से लोकसभा का चुनाव जीते। 1998 से 2004 तक अटलजी की सरकार में पहले वित्त और फिर विदेश मंत्री रहे। 2004 का लोकसभा चुनाव हारे लेकिन 2005 में पार्टी ने राज्यसभा भेज दिया। 2009 में एक बार फिर पार्टी ने हजारीबाग से टिकट दिया, जिसमे उन्हें जीत मिली।
सिन्हा मानते हैं कि 2009 के बाद भाजपा में उनकी भूमिका सिमटती गई । जिन्ना प्रकरण में आडवाणी जी के खिलाफ बयान, 2009 की पराजय के बाद आत्ममंथन के लिए तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह को अपने पत्र, नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के विरोध जैसे कारणों को याद करते हुए सिन्हा लिखते हैं कि उन्हें ' विद्रोही श्रेणी ' में डाल दिया गया। पार्टी प्रवक्ता पद से भी छुट्टी कर दी गई। सिन्हा का दावा है कि 2014 आने तक उन्हें महसूस हुआ कि सदन की कार्यवाही और अपने निर्वाचन क्षेत्र के रोजमर्रा के कामकाज में उनकी दिलचस्पी खत्म होती जा रही है। पार्टी के भीतर से भी ऐसी खबरें मिल रही थीं कि चुनाव बाद 75 साल के ऊपर के लोगों को मंत्री नही बनाया जाएगा। उन्होंने लिखा ,' मुझे मंत्री बनने में कोई दिलचस्पी नही रह गई थी।' इस मुकाम पर पहुंचते हुए सिन्हा अपने गुजरे समय और हिन्दू धर्म की जीवन व्यवस्था ब्रह्मचर्य , गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थ को याद करते हैं। खुद को संतुष्ट पाते हैं कि तीनों सोपानों के बाद अब सन्यास का समय आ गया है। पार्टी से अपने निर्वाचन क्षेत्र हजारीबाग से पुत्र जयंत सिन्हा को टिकट देने का आग्रह करते हैं। जयंत के नाम की घोषणा के ठीक पहले तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उनसे एक बार फिर फोन करके पूछा था कि क्या वह खुद चुनाव लड़ना चाहेंगे ? इस चुनाव में यशवंत सिन्हा के आग्रह पर मतदान के दो दिन पूर्व नरेन्द्र मोदी ने हजारीबाग में एक बड़ी सभा की थी। सिन्हा लिखते हैं," हम विपक्षियों को संभलने और भरपाई का मौका नही देना चाहते थे। मोदी की सभा और भाषण का जबरदस्त प्रभाव पड़ा। चुनाव पूरी तौर पर हमारे पक्ष में हो गया। जयंत को हजारीबाग के चुनावी इतिहास में सबसे ज्यादा 4,06,931 वोट मिले और वह 1,59,128 वोटों के फासले से जीते।' मोदी की पिछली सरकार में जयंत सिन्हा मंत्री भी रहे। 2019 में जयंत सिन्हा भाजपा के टिकट पर फिर लोकसभा के लिए चुने गए। लेकिन पिता के कारण वे आगे बढ़े और फिर पिता का मोदी विरोध ही उनके रास्ते का रोड़ा बन गया।....और यशवंत सिन्हा का सन्यास...? अपनी आत्मकथा में भले उन्होंने इसका इरादा जाहिर किया रहा हो लेकिन गुजरे साल गवाह हैं कि राजनीति में वे पूरी तौर पर सक्रिय रहे हैं। बेशक इन वर्षों में उनकी राजनीतिक उपस्थिति प्रभावी नहीं रही लेकिन पच्चासी की उम्र में भी उनके हौसलों में कोई कमी नहीं है। उनके राजनीतिक गुरु चंद्रशेखर ने उन्हें भाजपा में शिखर पर न पहुंचने की संभावना से सचेत किया था। अब वे दूसरे पाले में हैं और पारी को विराम देने को तैयार नहीं हैं। संख्या बल अनुकूल नहीं है तो क्या ? विपक्षी उम्मीदवार के तौर पर वे देश के सर्वोच्च पद के दावेदार हैं।