लखनऊ (मानवी मीडिया / रीना त्रिपाठी)अभी हमने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया है। सरकार भी नित नई योजनाओं का ऐलान करती रहती है जिसमें महिलाओं की सुरक्षा, तो कभी बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के नारे शामिल होते हैं। लाखों स्वयंसेवी संगठन महिला सुरक्षा की बात करते है, महिलाओं को आगे बढ़ाने और स्वावलंबी बनाने की बात करते हैं । जमीनी हकीकत आज भी कुछ और ही है अक्सर आपको और हमको मेलों में छोटी बच्चियां पतली रस्सी पर कभी एक पैर पर खड़ी तो कभी दोनों पैरों से करतब दिखाती हुई दिख जाती हैं।
निश्चित रूप से एक नारी का जीवन शायद इसी असमनजस और कसमकस में बीताता है कि जहां भी सामंजस्य का बैलेंस गड़बड़ हुआ पूरी जिंदगी खत्म ......।
जी हां एसिड अटैक हो रेप के केस हो या दहेज के लिए जला दिया जाना है एक से ज्यादा बेटियां होने पर जहर देकर मार दिया जाना यह सभी दुधारू तलवार ही तो है जिसमें हमेशा नारी को अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है यदि सबकुछ सही रहा तो करतब दिखाती हुई लड़की की तरह तालियां मिलती हैं और यदि कुछ भी गड़बड़ हुआ तो नीचे गिर कर हाथ पैर टूटने और सामाजिक बहिष्कार जैसे अनुभव आम है।
अपने नन्हे नन्हे हाथों में एक लंबा सा डंडा और वह रस्सी पर पैदल चलती इस लड़की को राहगीर देख कर रुक जाते हैं और फिर खुश होकर कुछ पैसे दे देते हैं। एक रस्सी में पैदल चलती छोटी सी बच्ची और गाना बजता देख लोग हैरत में पड़ जाते हैं लेकिन अब यही उसका जीवन बन गया है क्योंकि पैसे कमाना है। दूसरा कोई चारा नहीं पढ़ाई के दरवाजे इनके लिए बंद है और गलत रास्ते में जाना इन्हें मंजूर नहीं।
सरकार भले ही मासूम बच्चों को शत-प्रतिशत स्कूल भेजने और उनकी नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था कर रही हो पर विकास की दौड़ में प्रतिभाग करते हम आज भी ऐसे मासूम बच्चे हैं जो पढ़ना तो दूर अपने जीवन से खिलवाड़ कर दो वक्त की रोटी के लिए करतब दिखा रहे हैं। जान जोखिम में डालकर करतब दिखाती इस बच्ची को देखने के बाद यही कहा जा सकता है कि सरकारी नुमाइंदों को इस तरह के जान जोखिम में डालते बच्चे दिखते नहीं। चंद रुपयों के लिए मासूमों के जीवन से खिलवाड़ हो रहा है और हम सब उस तमाशा का हिस्सा बने हुए हैं। आप और हम भी दो मिनट रुक कर इन तमाशा की फोटो खींचते हैं ₹10 का नोट उस थाली में डालते हैं और फिर आगे चलते हैं किसी ने किसी मोड़ पर नए तमाशे मिलते ही रहते हैं। पर क्या हमारे कर्तव्य की इतिश्री इतने में हो गई? सरकारी मौन है जनता तमाशा बीन बनी है तो क्या होगा इन मासूम बच्चियों का?????
गरीबी हटाओ, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, सर्व शिक्षा अभियान, शिक्षा का अधिकार, जननी सुरक्षा... आदि अभियान, अधिकार व प्रावधान का सड़कों पर सरेआम मजाक उड़ रहा। सरकार लगातार इन अभियानों के जरिये बालिका शिक्षा व गरीबी दूर करने का दावा करती रही है, पर जमीनी हकीकत कुछ और है। देखना हो तो नगर के सड़कों पर नजर दौड़ा लिजीए। देखिए कि किस तरह अपना और परिवार को पेट भरने को मासूम बच्चे मौत से खेलते हैं।
दो वक्त की रोटी के टुकड़ों के लिए हवा में करतब दिखाना नन्हे हाथों एक बड़े से बांस, लोहे के रॉड को बैलेंस के लिए साधे रखना हर पल नीचे गिरने के डर और दर्द को सहने की, जीवन के संकट की तलवार लटकती रहती है पर फिर भी अपने दर्शकों को खुश करने के लिए मुस्कुरानाअच्छी मजबूरी है।निश्चित रूप से कुदरत ने नारी को असीम क्षमता और शक्तियां प्रदान किए हैं इस तरह के करतब दिखाना यदि सड़क की बच्चियों के लिए आम बात है तो शायद पढ़ लिखकर समुद्र की गहराइयों में झांकना हो या अंतरिक्ष की ऊंचाइयों को नापना बेटियां किसी से कम नहीं..... आवश्यकता है समाज में एक स्वस्थ मानसिकता के विकास की।
सरकारी योजनाओं के माध्यम से सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से या फिर परिवार के पोषक कर्ताओं के माध्यम से हमें हर स्तर पर बेटियों को सम्मान देना सीखना होगा ।
बेटियों भी जीवन में कीमती है इस बात को महसूस करना होगा। यदि बेटी ही नहीं होगी तो फिर सृष्टि में सृजन करता की भूमिका जो कि शायद भगवान के बाद एक बच्ची के हाथों में ही कुदरत ने सौंपी है कैसे पूरी होगी।
आप कल्पना करके देखें पतली सी रस्सी में चलना क्या उस बच्ची ने सहजता से स्वीकार किया होगा। उसे अपने पालकों द्वारा मार भी खानी पड़ी होगी, अपमान भी सहना पड़ा होगा, धमकियां भी सहनी पड़ी होंगी और कभी-कभी कई दिनों तक बिना खाना पानी के रहना पड़ा होगा,उस मौत की डोरी पर चलने की प्रैक्टिस करनी पड़ी होगी कितनी बार गिरी होगी, हाथ पैर में चोट आई होगी, आत्मा घायल हुई होगी, शरीर टूटा होगा ।
फिर भी दो पैसे कमाने की जद्दोजहद में उस बच्ची ने उफ तक ना की और फिर खड़ी हुई कपड़ों में लगी हुई धूल को झाड़ा और प्रैक्टिस करने लगी।
करतब दिखाने की इस होड़ में यदि सबकुछ सही रहा तो शायद एक बच्ची से एक युवती और एक महिला बनने के क्रम में उसे अपने संसार और दुनिया को बसाने का अवसर मिल सके और यदि सही नहीं रहा तो शायद विकलांगता का दंश झेलते हुए सड़क के किनारे भीख मांगते हुए भी हमें यह बच्ची जरूर मिल जाएगी।
अफसोस बेटियों की सुरक्षा के लिए अरबों रुपए का बजट जारी होने के बावजूद सड़कों के सिग्नल में भी मांगती हुई बच्चियां और मेलों में अपनी जान को जोखिम में डालकर करतब दिखाती हुई बेटियां हमें कब तक मिलती रहेंगी कब तक हम बंद कमरों में आयोजनों के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाते रहेंगे।क्या कुछ ऐसा नहीं हो सकता कि इन्हें भी स्कूल जाने की आजादी मिले इन्हें भी अपना भविष्य अपने दो पैरों से नहीं अपने दो हाथों से लिखकर बनाने का अधिकार मिले।
वाकई पेट की भूख कितनी खतरनाक होती है यह हम सब ने इन बच्चियों की सूनी आंखों में अक्सर देखा है आज जरूरत है उन संवेदनाओं को जगाने की जो इन बच्चियों को असमय मौत के मुंह में जाने या विकलांग होने के दुष्चक्र से बचा सके और स्वाभिमान पूर्ण जीवन कैसे बिताया जा सके इसका रास्ता बता सके।
निश्चित रूप से हम सब मिलकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को मनाते हैं आइए एक बार रुक कर इन बच्चियों की ओर भी देखें जो कहीं न कहीं कल महिला दिवस के सुखद अनुभव में दुखद चित्र बनकर ना उभरे , कुछ ऐसा करें कि इन्हें अपनी जान जोखिम में डालकर हर एक नया दिन ना बिताना पड़े।