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Saturday, February 5, 2022

बुद्धिजीवियों की राय, देशविरोधी गतिविधियों पर रोक के लिए विदेशी फंडिंग पर अंकुश जरूरी


नई दिल्ली (मानवी मीडिया): देश के बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने सरकार से देश में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को रोकने के लिए विदेशी पूंजी पर फलफूल रहे सामाजिक संगठनों एवं स्वयंसेवी संस्थाओं की निगरानी सुनिश्चित करने का आग्रह किया है। इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन और इंडिया फॉर चिल्ड्रेन के संयुक्त तत्वावधान में ‘‘विदेशी धन, सामाजिक कल्याण और स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका’’ विषय पर ऑनलाइन परिचर्चा का आयोजन किया गया। परिचर्चा में अंतरराष्ट्रीय वित्तीय मामलों के विशेषज्ञ डॉ. सुधांशु जोशी, जानेमाने अर्थशास्त्री और स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह संयोजक प्रो. अश्विनी महाजन एवं इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन के निदेशक डॉ. कुलदीप रतनू ने अपने विचार रखे। कार्यक्रम में वक्ताओं ने गैर सरकारी संस्थाओं को मिलने वाली विदेशी पूंजी की भूमिका की समीक्षा और निगरानी की आवश्यकता पर बल दिया। वक्ताओं का कहना था कि जो विदेशी सरकारें व संस्थान भारत में सामाजिक विकास और कल्याण के लिए पूंजी देते हैं, तो उसके पीछे उनका स्वार्थ और एजेंडा होता है और धन के लालच में हमारे एनजीओ और सामाजिक कार्यकर्ता उनके जाल में फंस कर राष्‍ट्र विरोधी गतिविधियों में शामिल हो जाते हैं।

डॉ. जोशी ने विषय पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहा कि विदेशी फंडिंग के कई स्वरूप हैं। भारत जब स्वतंत्र हुआ, उसके बाद से विदेशी सहायता के अनेक स्वरूप बन गए। सरकारों को मिलने वाली सहायता पर भी शर्तें लगाई गईं। उनके पसंद के जन-संगठनों के लिए अलग फंडिंग होती है। पर्यावरण और कृषि के क्षेत्र में अलग फंडिंग होती है और सामाजिक विमर्शों के लिए अलग फंडिंग होती है। इन सब के पीछे एक खास उद्देश्य होता है।

उन्होंने कहा कि भारत के अनेक बड़े-बड़े एनजीओ जाने-अनजाने में अपने विदेशी दानदाताओं के हितों की पूर्ति करने में सक्रिय रहते हैं, उन पर जब भी निगरानी रखने और फंडिंग का हिसाब मांगने की बात होती है, तब इन्हीं संगठनों के लोग विदेशों में जाकर सरकार की आलोचना करने लगते हैं। दूसरी ओर केंद्र सरकार के पास ऐसी कोई संस्था नहीं है, जो विदेशी फंडिंग से चल रही गतिविधियों पर सतत निगरानी रख सके।

डॉ. जोशी ने कहा कि स्वतंत्रता के बाद दक्षिण व पूर्वी भारत में आदिवासियों के उत्थान के नाम पर बहुत फंडिंग हुई लेकिन उसकी कोई निगरानी हमारी तत्कालीन सरकारों ने नहीं की। जबकि यह सब एक एजेंडा के तहत किया गया और भारी संख्या में गरीबों एवं आदिवासियों का धर्मांतरण किया गया।

उन्होंने कहा कि आज हिन्दुस्‍तान दुनिया के उन कुछेक देशों में शामिल है जहां सरकार द्वारा सबसे ज्यादा सामाजिक सुरक्षा की योजनाएं चल रही हैं। साथ ही भारत में स्थानीय स्तर पर ही 65,000 करोड़ रुपये से अधिक का दान सामाजिक कार्यों के लिए किया गया, जबकि विदेशी फंड इसका 25 प्रतिशत भी नहीं हैं। इसलिए अब भारत के सामाजिक संगठनों को क्या जरूरत है कि वे विदेशों से लगातार सहायता लें। जबकि विदेशी दानदाताओं की नीयत पर लगातार सवाल उठते रहे हों। इसलिए जन संगठनों को सचेत रहने की जरूरत है और स्थानीय स्तर पर ही फण्ड जुटाने हेतु अपनी प्रतिष्ठा बनानी चाहिए, ताकि उन्हें विदेशी जाल से मुक्ति मिल सके। उन्होंने कहा कि भारत की वर्तमान परिस्थिति में विदेशी अंशदान की निगरानी करना आवश्यक है। अमेरिका और यूरोप के देशों में तो सामाजिक संगठनों हेतु पूंजी के आने जाने पर भारत से भी कहीं अधिक निगरानी रखी जाती है।

 विदेशी अनुदान विनियमन कानून (एफसीआरए) पर उठे विवाद को अनावश्यक बताते हुए डॉ. जोशी ने बताया कि यह कानून तो 2010 में कड़ा किया गया था और हजारों संगठनों की मान्यता रद्द की गई थी, उस समय केंद्र में डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार थी। अब 2020 में उसी कानून में संशोधन किया गया है और कुछ नए प्रावधान किए गए हैं।

स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह संयोजक प्रो. महाजन ने कहा कि जब देश में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी, तब उसने तय किया कि अब हमें दुनिया के हर देश से सहायता नहीं चाहिए और केवल आठ-10 समृद्ध देशों से आ रही विदेशी सहायता जारी रखी गयी। अब मोदी सरकार ने यह तय किया है कि जो गैर सरकारी संगठन विदेशी फण्ड से जुड़ी पूरी जानकारी नहीं देते हैं, उन्‍हें एफसीआरए का लाइसेंस नहीं मिलना चाहिए। वर्तमान सरकार का यह रुख वाजपेयी सरकार के कदम का विस्तार है। देश में सामाजिक-साम्‍प्रदायिक सदभाव बना रहे और हम विदेशी साजिश का शिकार न हों, इसके लिए यह जरूरी है।

उन्होंने कहा कि कोरोना संकट में अंतरराष्‍ट्रीय संस्थाओं एवं एजेंसियों ने खुलेआम यह कहा कि भारत एवं अन्य विकासशील देशों को वैक्सीन से जुड़ी टैक्नोलॉजी नहीं देनी चाहिए। जबकि ये ही संगठन भारत में अनावश्यक टीकों को सरकारी कार्यक्रमों में लागू करवाने के लिए दबाव डालते हैं। कहने के लिए वे स्वास्थ्य सुधार के लिए काम करते हैं लेकिन उनका उद्देश्य विदेशी दवा कंपनियों के व्यापार को बढ़ाना होता है। इन्हीं संगठनों ने कई अनावश्यक टीकों का हमारे बच्चों एवं महिलाओं पर गुपचुप परीक्षण करवा दिया जिसमें अनेक भारतीय मौत के शिकार हो गए। ऐसे विदेशी संस्थानों के भारत स्थित लाइजन ऑफिस पर निगरानी का काम भी रिज़र्व बैंक से लेकर गृह मंत्रालय को देना चाहिए।

प्रो. महाजन ने सरकार को सचेत करते हुए कहा कि विदेशी फंडिंग देने वाली एजेंसियों का तंत्र बहुत गहरा और मजबूत है और उनका प्रभाव भी व्यापक है। कार्यक्रम का संचालन इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन के निदेशक डॉ. कुलदीप रत्नू ने परिचर्चा की शुरुआत करते हुए कहा कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उपनिवेश छोड़ देने के लिए मजबूर हुए राष्ट्र उन पर अप्रत्यक्ष रूप से अपना शिकंजा कसा हुआ रखना चाहते थे। इस उद्देश्य से विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, संयुक्त राष्ट्र संघ एवं अन्य अनेक वैश्विक संस्थान बनाये गए। उसके बाद नव स्वतंत्र राष्ट्रों से यह कहा गया कि उनके विकास हेतु विदेशी सहायता बहुत आवश्यक है। लेकिन इस विदेशी सहायता की आड़ में उन देशों में सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक गतिविधियों पर नियंत्रण कसा जाने लगा और अनेक ऐसे सामाजिक संगठन खड़े किए गए जो दानदाताओं के निहित स्वार्थों हेतु काम करने लगे।

उन्होंने कहा कि कई दशकों तक उनका यह काम अबाध रूप से चलता रहा और भारत को अंदर से खोखला करने के प्रयास चलते रहे। अब जबकि आतंकवाद, नक्सलवाद और अन्य विघटनकारी गतिविधियों से भारत जूझ रहा है तो विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम में संशोधन करके विदेशी फंडिंग लेने वाले संगठनों पर निगरानी बढ़ाई गई है। लेकिन इस निगरानी से घबराने वाले संगठन यह दावा कर रहे हैं कि सरकार अपने राजनीतिक विरोध को दबाने के लिए कड़ाई कर रही है। जबकि सच्चाई यह है कि भारत में अनेक राजनीतिक दल हैं जो सरकार के विरोध में हैं और राजनीतिक गतिविधियों के लिए विदेशी फण्ड लेने पर पहले से ही प्रतिबंध है। इसलिए सिर्फ राजनीतिक विरोध के लिए सामाजिक संगठन बनाकर विदेशी फंडिंग लेना तो कतई उचित नहीं है। परिचर्चा के श्रोताओं ने अनेक प्रश्न भी किए गए जिनके सारगर्भित उत्तर डॉ. जोशी और प्रो. महाजन ने दिए।

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