लखनऊ (मानवी मीडिया)आत्मनिर्भर भारत पैकेज के तहत केंद्र सरकार ने सभी सेक्टर्स को निजी क्षेत्र के लिए खोलने का फैसला किया है और इसके तहत बहुत सी कंपनियों, बैंको , बिजली प्रतिष्ठानों को बेचने के लिस्ट भी तैयार हो गई है। सरकार ने तय किया कि देश को आत्मनिर्भर तो बनाना है पर कुछ निजी हाथों में सौंप कर। आर्थिक सुस्ती को लेकर पहले से ही जूझ रही भारतीय अर्थव्यवस्था कोरोना संकट के बीच बुरी तरह हिल गई , हालात ऐसे हैं कि केंद्र सरकार लगातार सरकारी उपक्रमों (PSUs) में अपनी हिस्सेदारी बेचने की योजना पर काम कर रही है। यह वाकई सोचने का विषय है निजी शब्द ही स्वार्थ और खुद के हित के सिवा कुछ और नहीं दर्शाता वहां देश का हित है कैसे संभव है। सरकारी संपत्ति या निजी हाथों में जाने के बाद देश का फायदा कर पाएंगे यह हास्यास्पद लगता है क्योंकि अभी हम विकासशील ही हैं विकसित नहीं हुए।
निजी करण हेतु कारण बताते हुए सरकार का कहना हैकि उनका प्रयास लोगों के जीवन स्तर को सुधारने के साथ ही लोगों के जीवन में सरकार के बेवजह के दखल को भी कम करना है। केंद्र सरकार का कहना है कि बेकार पड़ी सरकारी संपत्तियों को बेचकर 2.5 लाख करोड़ रुपये जुटाने की योजना है।उन्होंने कहा, "जब देश में पब्लिक सेक्टर इंटरप्राइज शुरू किए गए थे तब समय अलग था। इसका उद्देश्य यह था कि जनता के पैसे का सही उपयोग हो." सरकार का यह दायित्व है कि वह देश के इंटरप्राइजेज को, बिजनेस को पूरा समर्थन दे, लेकिन सरकार खुद इंटरप्राइज चलाए, उसकी मालिक बनी रहे, यह जरूरी नहीं है।
आज के समय में जहां एकओर देश की ज्यादातर सार्वजनिक प्रतिष्ठान निजी करण के दानव के चंगुल में है, वही वहां काम करने वाले लाखों कर्मचारी और उनका परिवार असहजता और असमंजस की दुधारू तलवार पर चलने को विवश।
सरकार का एक तरफ कहना है कि"आज जब हम ये सुधार कर रहे हैं तो हमारा सबसे बड़ा लक्ष्य यही है कि जनता के पैसे का सही उपयोग हो,कई सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम घाटे में चल रहे हैं, कई को करदाताओं के पैसे से मदद दी जा रही है ।
अफसोस जनक है की ऐसी योजना क्यों नहीं बनाई जा रही ताकि विभाग फायदे का सौदा बने। बेवजह दी जाने वाली व्यापारियों को कर्ज माफी की सुविधाएं बंद होनी चाहिए। सरकारी उपक्रमों से विधायकों सांसदों और नेताओं को मिलने वाले लाभ भी बंद होने चाहिए।गांव का आम किसान यदि एक बल्ब जलाने पर 2000 की बिजली का बिल दे सकता है तो संपन्न विधायक सांसद और नेता कई एयरकंडीशन चलाने के बाद फ्री बिजली का उपयोग क्यों करते हैं। बीएसएनल की मुफ्त सेवा आम जनता के लिए नहीं थी करोड़ों का कर्जा इन्हीं सत्ता पसंद लोगों की नाम हो रहा यही हाल एयर इंडिया के बर्बादी का भी बना मुक्त हवाई और रेल सेवा भी इन्हीं बड़े आकाओं को मिलती है। और आज बैंकों की बर्बादी के लिए भी बड़े एनपीए और अक्सर दिवालिया घोषित करने के खेल में शामिल बड़ी कंपनियों के कर्ज ही जिम्मेदार होने जा रहे हैं।
केंद्र सरकार अक्सर कहती है कि सरकारी कंपनियों को केवल इसलिए नहीं चलाया जाना चाहिए कि वे विरासत में मिली हैं, बीमार सार्वजनिक उपक्रमों को वित्तीय समर्थन देते रहने से अर्थव्यवस्था पर बोझ पड़ता है।अतः सरकार के पास इन्हें निजी हाथों में सौंपने के सिवा और कोई चारा नहीं। बड़े-बड़े मैनेजमेंट गुरु और अर्थशास्त्री भारत की महान भूमि में होने के बावजूद बड़ी योजनाएं और नीतियां इन उपकरणों को बचाने के लिए क्यों नहीं बनाई जाती यह वाकई सोचने का विषय है।अपनी चिर परिचित नीतियों के तहत केंद्र सरकार सरकारी बैंकों का निजीकरण करने जा रही है। बैंक यूनियनें निजीकरण का विरोध कर रही हैं। उनका कहना है कि सरकारी बैंकों को मज़बूत करके अर्थव्यवस्था में तेज़ी लाने की ज़िम्मेदारी सौंपने की ज़रूरत है उस वक़्त सरकार एकदम उलटे रास्ते पर चल रही है। सरकार बैंक बेचने की तैयारी कर रही है। इनमें बैंक ऑफ महाराष्ट्र, बैंक ऑफ इंडिया, इंडियन ओवरसीज़ बैंक और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के नाम प्रमुखता से लिए जा रहे हैं, आगे अन्य की बारी।
इन बैंकों के लगभग एक लाख तीस हज़ार कर्मचारियों के साथ ही दूसरे सरकारी बैंकों में भी इस चर्चा से खलबली मची हुई है।1969 में इंदिरा गांधी की सरकार ने 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था बैंकों का दरवाजा आम जनता के लिए सरकारी प्रतिष्ठानों के लिए और रोटी कपड़ा मकान जुटाने की जंग में लगे हुए आम आदमी के लिए खोल दिया गया।
बैंकों के मामले में एक बड़ी समस्या यह भी है कि लगभग सभी सरकारें जनता को लुभाने या वोट बटोरने के लिए ऐसे एलान करती रहीं जिनका बोझ सरकारी बैंकों को उठाना पड़ता है क़र्ज़ माफ़ी, नोट बन फर्जी कंपनियां बनाकर सरकारी बैंकों से लोन लिया जाता है और बाद में इन कंपनियों को दिवालिया घोषित कर दिया जाता है, इनका सबसे बड़ा उदाहरण है। और इसके बाद जब बैंकों की हालत बिगड़ती है तो सरकार को उनमें पूंजी डालकर फिर उन्हें खड़ा करना पड़ता था।
आज सरकारी बैंक निजी क्षेत्र के बैंकों और विदेशी बैंकों के मुक़ाबले में वो पिछड़ते भी दिखते हैं डिपॉजिट और क्रेडिट दोनों ही मोर्चों पर इनके हाथ बांध दिए गए हैं। वहीं डूबनेवाले क़र्ज़ या स्ट्रेस्ड ऐसेट्स के मामले में सरकारी बैंक सबसे आगे है। जब घाटे में चल रहे प्रतिष्ठानों को कोई निजी घराना खरीद लेता है तब आपको जानकर आश्चर्य होगा इसे पुनरुत्थान के लिए उन निजी घरानों को कर्ज भी सरकारी बैंकों द्वारा दिया जाता है तो फिर यक्ष प्रश्न उठता है यह कर्ज पहले देकर स्थिति क्यों नहीं सुधार दी जाती है।वहीं दूसरी तरफ बढ़ते हुए यदि बात बिजली के निजीकरण की यदि की जाए तो सरकार द्वारा जिस भी कंपनी को बेचा जाएगा, उसके पास शहर में बिजली वितरण और रिटेल सप्लाई की जिम्मेदारी होगी। ... जबकि उत्पादन पावर हाउस मेंटेनेंस और इंफ्रास्ट्रक्चर लगाने का काम सरकार और सरकारी विभाग के पास ही रहेगा। बस शुद्ध लाभ जो कि जनता से वसूल कर कमाना है यह निजी घरानों को दे दिया जाएगा। लाखों कर्मचारी प्राइवेट कंपनी में शिफ्ट होंगे। कर्मचारी नित प्रतिदिन अपने भविष्य के खतरे की आशंका के प्रति सशंकित रहते हैं। कई बिजली प्लांट पहले ही निजी घरानों को दे दिए गए हैं ।बिजली का लागत मूल्य काफी कम होने के बावजूद निजी बिजली उत्पादकों के प्लांट पूर्ण क्षमता पर चलवाकर उच्च दरों पर बिजली खरीदी जाती है तथा सस्ती बिजली पैदा करने वाले सरकारी बिजली उत्पादन केन्द्रों का उत्पादन, थर्मल बैकिंग के नाम पर, प्रतिबन्धित करने व अनुरक्षण हेतु पर्याप्त धन उपलब्ध न कराने की खबरें यदाकदा आती रहती हैं।देश में मुनाफे वाली बिजली कंपनी को पहले चरण में निजी हाथों में सौंपे जाने का मसौदा केेंद्र सरकार ने राज्यों को जारी कर दिया है। इसके तहत एक रुपए में बिजली कंपनी को संचालन के लिए निजी कंपनी को सौंप दिया जाए। सरकार का यह फैसला हैरानी भरा है कि थर्मल व सौर ऊर्जा के क्षेत्र में भारी मुनाफा कमाने वाले निजी निवेशकों से सार्वजन बैंकों द्वारा सरकारी नीति के तहत उपलब्ध कराए गए ऋण की वसूली की प्रभावी व्यवस्था नहीं की जा रही जिससे लाखों करोड़ों कारण बट्टे खाते या कहें एनपीए में परिवर्तित हो रहा है। और बाद में बैंकों के निजीकरण का मुख्य कारण भी बन रहा है।
राज्य कल्याणकारी नीति के अंतर्गत बिजली ने हरित क्रांति के माध्यम से अन्न के क्षेत्र में हमारे कृषि प्रधान देश को न सिर्फ आत्मनिर्भर बनाने बल्कि लम्बे अरसे से किसानों को सिंचाई के सस्ते साधन उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।चन्द कॉरपोरेट घरानों को अप्रत्याशित लाभ पहुंचाने के लिये न सिर्फ बिजली बल्कि कोयला, तेल, रेल, बैंक, बीमा, स्वास्थ्य, रक्षा, शिक्षा आदि सहित सम्पूर्ण सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण किया जा रहा है। सच्चाई यह है कि आरएसएस, भाजपा का विकास का मॉडल राष्ट्रीय सम्पत्ति को बेचकर उसे बर्बाद करने का मॉडल है जो राष्ट्रवाद के नाम पर बढ़-चढ़ कर प्रचारित किया गया ।
एक तरफ केंद्र और राज्य के कर्मचारी अपना पूरा जीवन सरकार की सेवा में लगाने के बाद जब सेवानिवृत्त होता है तो उसके पास बुढ़ापे की लाठी रूपी पेंशन पहले ही छीन ली गई है कर्मचारियों को नई पेंशन योजना के नाम पर शेयर मार्केट में गाढ़ी कमाई का पैसा लगाने को विवश किया गया। वही दूसरी तरफ भारतीय रेल,बीएसएनल, एल आई सी, भेल, गेल, बीपीसीएल जहां देश की अर्थव्यवस्था सुधारने व कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था के निचले स्तर तक सुविधा पहुंचाती थी।
सर्वविदित है निजी कंपनियां तो ये रियायत यात्रियों को देगी नहीं । ऐसे में ग़रीब और मध्यम वर्ग के यात्रियों की जेब पर भार बढ़ेगा। अभी लोगों को लग रहा है जब निजीकरण होगा तो अच्छी सेवा मिलेगी लेकिन वास्तव में ऐसा होगा इस पर शक है। हम सभी ने शिक्षा के निजीकरण और टेलिकॉम के निजीकरण के दुष्प्रभावों को अब तक अनुभव कर भी लिया है।
किसान अपने हक और अधिकार के लिए जागरूक थे उन्होंने अपनी मांगे रखी और काले कानूनों को वापस भी कराया। अब देखना होगा भारतीय अर्थव्यवस्था के आधार स्तंभ सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम के कर्मचारी खुद की नौकरियां और उपक्रम के अस्तित्व को कैसे बचा पाते हैं।
रीना त्रिपाठी