बजट का असली मतलब आमदनी और खर्च का हिसाब लगाना और उसे संतुलित करना ही होता है। अक्सर बजट प्रस्तुत करते समय सबसे जटिल होता है कम आमदनी में बजट को सर्वांगीण विकास, समग्र दिशाओं एवं योजनाओं के लिये धन खर्च करने की घोषणाएं करना एवं व्यवस्थाएं करना। चालू वित्त वर्ष के शुरुआती आठ महीनों का जो आंकड़ा जारी हुआ है, उसके हिसाब से चिंता आमदनी की उतनी नहीं है, जितनी इस बात की कि सरकार का खर्च इतना कम क्यों है? मोदी सरकार की जागरूकता एवं चुस्त शासन व्यवस्था का ही परिणाम है कि पूर्व अनुमान से सरकार की आमदनी सभी स्रोतों से करीब 2.25 लाख करोड़ रुपये अधिक हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह टैक्स वसूली में आई तेजी है। पिछले छह महीनों में हर महीने औसतन 1.20 लाख करोड़ रुपये तो सिर्फ जीएसटी से ही आए हैं। इन स्थितियों को देखते हुए कहा जा सकता है कि कारोबार रफ्तार पकड़ रहा है, लोगों में टैक्स देने के प्रति जागरूकता आई है, देश की सबसे बड़ी कंपनियों के नतीजे उत्साहवद्र्धक है। कोरोना के बाद से ही इनके मुनाफे में रिकॉर्ड बढ़ोतरी देखने को मिली है और आज भी मिल रही है।
अनुमान से लगभग 30 प्रतिशत अधिक आमदनी एवं आने वाले वर्ष में इसके और अधिक बढऩे की संभावनाओं को देखते हुए तेज विकास के लिये रोडमैप तैयार करने का वक्त है। यह बजट आम-जन की सहभागिता और उसके व्यापार, उद्यम एवं क्षमताओं की कितनी जमीन तैयार करेगा, कितने रोजगार के नये अवसर सामने आयेंगे, एक संदेहभरा वातावरण लिये हुए है। भारत की वर्तमान अर्थव्यवस्था की बड़ी विसंगति रहा कि यहां एक तरफ गरीब है तो दूसरी तरफ अति-अमीर है। इन दोनों के बीच बड़ी खाई है। इनके बीच की दूरियां इस बजट से दूर होना अपेक्षित है। आशा की जाती रही थी कि मोदी सरकार के बजट आर्थिक विसंगतियों को समाप्त करने का माध्यम बनेंगे, आशा तो अभी भी है, लेकिन इस बजट से वह कितनी पूरी होती है, यह एक प्रश्न है।
जीवन के आसपास गुजरते अनुभवों की सत्यता यही है कि मनुष्य धन के बंधनों में घुटा-घुटा जीवन जीता है, जो परिस्थितियों के साथ संघर्ष नहीं, समझौता करवाता है। हर वक्त अपने आपको असुरक्षित-सा महसूस करता है। जिसमें आत्मविश्वास का अभाव अंधेरे में जीना सिखा देता है। जिसके द्वारा महत्त्वाकांक्षाओं का बोझ ढोया जाता है। जिसके लिए न्याय और अधिकार अर्धशून्य बन जाता है। जिससे सफलताएं दूर भागती हैं और जिसमें न उद्देश्य की स्पष्टता होती है और न वहां तक पहुंचने के लिए छलांग भरने की ताकत। आम आदमी से जुड़ी इन जटिल स्थितियों को बदलना सरकार की प्राथमिकता होना चाहिए एवं इसकी आहट इस बजट में सुनाई देनी ही चाहिए।
सरकार चाहे, तो देश की तस्वीर बदल सकती है, आम जनता की अपेक्षाओं पर खरी उतर सकती है, जरूरी चीजों पर खर्च कर सकती है या उन पर खर्च की राशि बढ़ा सकती है। सरकार के पास फण्ड की कमी नहीं है, बल्कि इस साल विडम्बना यह है कि सरकार को जितनी राशि खर्च करना था उसका 60 फीसदी हिस्सा भी खर्च नहीं हो पाया है। सुखद संकेत है कि कोरोना महामारी के बावजूद सरकार के पास विभिन्न जनोपयोगी योजनाओं पर खर्च करने के लिये अतिरिक्त आमदनी एवं पूर्व में बजट से कम खर्च करने से बचा फण्ड बहुतायत में हैं। अभी कोरोना की तीसरी लहर का डर अर्थव्यवस्था के सामने खड़ा है। फिर भी सरकार के हाथ एकदम बंधे हुए तो नहीं हैं।
चहूं ओर आमदनी बढऩे की सुखद स्थितियों के बीच चिंता बढ़ाने की बात यह है कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद वे अर्थशास्त्री सही साबित हो रहे हैं, जो कह रहे थे कि कोरोना के बाद अर्थव्यवस्था में भले सुधार हुआ हो, इसकी सबसे बड़ी विसंगति यह है कि कुछ तबके तेजी से ऊपर जा रहे हैं, वहीं बहुसंख्य आज भी नीचे ही गिरते दिख रहे हैं। यह अमीरी एवं गरीबी की बढ़ी दूरियां सरकार की चिन्ता का कारण होना चाहिए। सरकार की सार्थक पहल हो कि गरीबों को सहारा देने का रास्ता निकाला जाए। अमीरों की अमीरी बढऩा समस्या नहीं है बल्कि गरीबों की गरीबी बढऩा बड़ी समस्या है, एक बदनुमा दाग है। इस दाग को धोने के लिये सरकार को कुछ कठोर निर्णय लेने होंगे।
छोटे व्यापारी और कुछ सेक्टर, जैसे होटल और पर्यटन आज भी संघर्ष करते दिख रहे हैं। यही हाल मध्यवर्ग और उन गरीबों का भी है, जिनके लिये दो वक्त की रोटी जुटाना आज भी महाभारत है या जिनके घरों ने कोरोना की मार झेली है। ऐसे वर्गों केे लिये सरकार को अपना खजाना खोलना चाहिए। एलआईसी का आईपीओ आ गया, तो एक झटके में एक से डेढ़ लाख करोड़ रुपये तक की रकम सरकार को मिल सकती है। इस आईपीओ को लाने में आ रही दिक्कतों को दूर करना चाहिए। सरकार को रोजगारमूलक योजनाएं बनानी चाहिए, भारत के कुछेक चुनींदें धनाढ्य ही नहीं बल्कि हर आदमी आगे बढ़ता हुआ दिखना चाहिए- तभी सबका साथ सबका विकास उद्घोष सार्थक होगा। ऐसे में, देखना यही है कि सरकार बजट में क्या रुख अपनाती है?
मोदी सरकार धन के प्रति एक नये नजरिया विकसित करने को तत्पर है। कुछ ऐसी योजनाओं के द्वारा वैभवता को भी सम्यक् बनाने की कोशिश की जानी चाहिए, इसी से नये आर्थिक अभ्युदय संभव है। भारतीय संत मनीषा ने धन के प्रति सम्यक् नजरिये और सम्यक् आजीविका की बात कही है। विडम्बनापूर्ण अर्थव्यवस्थाओं में अर्थ की चिन्ता तो रही है, पर जीवन का कोई मूल्य नहीं रहा। आज हमारे जितने क्रियाकलाप अथवा आजीविका के स्रोत हैं, वे उदरपूर्ति के निमित्त धन प्राप्त करने के लिए नहीं, अपितु बाह्याडंबरों और झूठी प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए ज्यादा हैं। क्या इस तरह की विसंगतिपूर्ण आर्थिक सोच से मुक्ति मिल सकेगी? आज कुछ धनाढ्य लोगों ने अधिकांश साधन अपनी मु_ी में बंद कर रखें हैं। इसी से हम घोर विषमता के दुष्चक्र में फंसे हैं। जमाव अभाव का जनक होता है यानी धन का कुछ हाथों में केन्द्रित होना एक बड़ी समस्या है और इसी से हिंसा, आतंक, विद्रोह, शोषण जैसी स्थितियां पैदा होती हैं। एक तरह से अशांति और अराजकता का मूल कारण सरकार की पोषित गलत आर्थिक नीतियों से पैदा हुए ये चन्द धनाढ्य लोग ही है। मोदी सरकार इस दिशा में कोई ठोस निर्णायक भूमिका का निर्माण कर सकी तो उनके नये भारत-सशक्त भारत के निर्माण में ऐसी नवीन आर्थिक नीतियों एवं सोच का बड़ा प्रभाव होगा। यही सोच विकसित करके भारत को दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बना सकेंगे।