लखनऊ( मानवी मीडिया)उत्तर प्रदेश में अगले वर्ष होने वाले विधान सभा चुनाव में हिन्दू वोटर एकजुट होकर न रहें,इसके लिए कांगे्रस और सपा ने गोटिंया बिछाना शुरू कर दी हैं। सपा गैर जाटव दलित वोटरों को अपने पालें में खींचकर सियासी बिसात पर बाजी मारना चाह रही है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव मुस्लिम-यादव और गैर जाटव दलित वोटरों को सपा के पक्ष में एक जुटकर करने को आतुर हैं। वैसे तो गैर जाटव दलित वोटर बसपा का वोट बैंक माना जाता है,लेकिन समय-समय पर इसने बहनजी से दूरी बनाने में भी संकोच नहीं किया। बसपा के गैर जाटव दलित वोटरों पर अन्य दलों की नजर की सबसे बड़ी वजह है बीएसपी का लगातार गिरता जनाधार। प्रदेश की सियासत में 2012 के बाद से बसपा अपना वोट बैंक बचा नहीं पा रही है। 2012 के विधान सभा चुनाव में सपा के युवा नेता अखिलेश यादव ने बसपा सरकार को उखाड़कर सत्ता हासिल कर ली थी। यह वह दौर था जब लोगों का मायावती से विश्वास उठता जा रहा था,लेकिन मुलायम की वापसी भी कोई नहीं चाहता था,तब मुलायम ने अपने पुत्र अखिलेश पर दांव चला। अखिलेश युवा और पढ़े लिखे थे। अखिलेश ने प्रचार के दौरान जनता को विश्वास दिलाया कि यदि सपा की दूसरी बार सरकार बनेगी तो गुंडागर्दी बर्दाश्त नहीं की जाएगी। जनता ने अखिलेश की बातों पर विश्वास किया और सपा की सरकार बन गई। यह और बात थी कि तब तक बसपा के वोट बैंक में ज्यादा बिखराव देखने को नहीं मिला था। खासकर दलित वोटर बहनजी के साथ पूरे विश्वास के साथ खड़े थे,लेकिन बसपा के दलित वोट बैंक में 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने जबरदस्त सेंधमारी की,जिसके चलते बसपा का खाता ही नहीं खुल पाया था। यह सिलसिला आगे चलकर 2017 के विधानसभा चुनाव में भी दिखाई दिया। हालांकि अखिलेश ने यही सोच कर कांगे्रस से हाथ मिलाकर विधान सभा चुनाव लड़ा था,उन्हें उम्मीद थी कि दलित वोटर उसके पाले में खिसक आएंगे। लेकिन नतीजा शून्य ही रहा था। इस बार यानी 2017 में दलितों उसमें भी खासकर गैर जाटव दलितों ने यूपी में बीजेपी की सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यूपी में मोदी की आंधी चल रही थी,उसे रोकने के लिए 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती और अखिलेश यादव तक को गठबंधन करना पड़ गया। इसका फायदा भी बसपा को हुआ। इसी लिए 2019 लोकसभा चुनाव नतीजे आने के बाद यह कयास लगना शुरू हो गया कि बसपा सुप्रीमों मायावती, सपा को उत्तर प्रदेश में नंबर दो से बेदखल कर बसपा को उस जगह पर काबिज करने में सफल हो जाएंगी।परंतु मायावती न तो सड़क पर उतरी और न बीजेपी सरकार के खिलाफ उनके वो तेवर नजर आए जिसके लिए वो जानी जाती थीं बल्कि कई मौकों पर बहनजी मोदी सरकार के सुर में सुर मिलाने लगीं। मायावती के इस रवैये से दलित वोटर काफी हैरान.परेशान था। दलित वोटरों की इस स्थिति की जानकारी सपा प्रमुख अखिलेश ही क्या सभी दलों के नेताओं को थी। ऐसे में दलित वोट बैक को साधनेके लिए सपा-कांगे्रस ने भी जोरआजमाइश शुरू कर रखी है, लेकिन अभी तक सपा-कांगे्रस दलितों का विश्वास जीतने में कामयाब नहीं हो पाए हैं। इसकी वजह भी है समाजवादी पार्टी का दलितों के बारे में रिकार्ड कभी अच्छा नहीं रहा है। मुलायम स्वयं को दलितों की बजाए पिछड़ों का नेता कहलाना ज्यादा पंसद करते थे।यादव और मुस्लिम वोट बैंक के सहारे सपा की कइ बार प्रदेश में सरकार भी बनी थी।
गौरतलब हो कि उत्तर प्रदेश में दलित मतदाता करीब 23 फीसदी है। 80 के दशक तक दलित कांगे्रस का वोट बैंक हुआ करता था,लेकिन दलित वोटर कांगे्रस की लीडरशिप से इसलिए नाराज रहते थे क्योंकि नेहरू.गांधी परिवार ने कांग्रेस में कभी दलित नेताओं को उभरने का मौका नहीं दिया। इसीलिए जब मान्यवर कांशीराम ने दलित चेतना जगाने का काम किया और मायावती को दलित नेता के रूप में आगे किया तो दलित वोटर उनके साथ होने में जरा भी नहीं हिचकिचाए। इसी के साथ कांगे्रस का यूपी से सफाया भी हो गया।
बात भाजपा के दलित वोट बैंक में सेंधमारी के तरीके की कि जाए तो बताना जरूरी है कि यूपी में करीब 23 फीसदी दलित समाज दो हिस्सों में बंटा है। 12 प्रतिशत आबादी जाटव की है और करीब 11 प्रतिशत गैर जाटव दलित वोटर हैं। जाटव वोट बसपा का मजबूत वोटर माना जाता है,जबकि गैरी जाटव दलित वोटर अन्य दलों के लिए भी वोटिंग करने से परहेज नहीं करते रहे हैं, पिछले तीन चुनाव इसका सबूत हैं। जिसका फायदा भाजपा को मिला। गैर जाटव दलित वोटरों पर भीम आर्मी के चन्द्रशेखर आजाद रावण काफी समय से नजर जमाए हुए हैं,लेकिन मायावती ने अभी तक उनकी दाल नहीं गलने दी हैै। गैर जाटव दलित वोटरों का बीजेपी के प्रति ज्यादा झुकाव अचानक नहीं हुआ है। इन वोटरों को लुभाने के लिए बीजेपी और मोदी ने तमाम गैर जाटव बिरादरी के महापुरूषों का समय-बेसमय महिमामंडन करते रहते हैं।
गैर.जाटव दलित वोट में 50.60 जातियां और उप-जातियां हैं और यह वोट विभाजित होता रहता है। हाल के कुछ वर्ष के चुनाव में देखा गया है कि गैर जाटव दलितों का उत्तर प्रदेश में बीएसपी से मोहभंग हुआ तो उसने बीजेपी के साथ जाने में गुरेज नहीं किया,लेकिन हकीकत यह भी है कि यह वोटबक कभी किसी दल के साथ स्थाई रूप से नहीं खड़ा रहा है। इसी लिए 2022 के विधान सभा चुनाव के लिए गैर-जाटव दलितों को साधने के लिए अखिलेश यादव भी मशक्कत कर रहे हैं। अखिलेश यादव प्रदेश में बीजेपी से मुकाबला करने के लए कई सियासी प्रयोग कर चुके हैं। उनके द्वारा कांगे्रस से लेकर बसपा तक से गठबंधन, इसी वोट बैंक की चलते किया गया था। लेकन बीजेपी को अखलेश मात नह दे सके। परंतु अखिलेश ने हार नहीं मानी। इसी क्रम में अब अखिलेश का भीमराव अंबेडकर को समाजवाद का आदर्र्श बताना। वाराणसी में संत रविदास के दर पर मत्था टेकना और तो और अपने होर्डिंग में भीमराव अंबेडकर की तस्वीर को लगाना, यह इशारा कर रहा है कि अखिलेश ने दलित वोट बक को अपने साथ हर हाल में जोडऩे की कोशिश तेजकर रखी है। बात कांगे्रस की कि जाए तो जब से उत्तर प्रदेश में कांगे्रस की कमान प्रियंका गांधी के हाथ आई है तब से कांगे्रस अपने पुराने दलित वोट बेैंक को फिर से जोडऩे की रणनीति पर काम कर रही है।
सांभर अजय कुमार