कृषि कानूनों को लेकर किसान संगठनों व केन्द्र सरकार के बीच पैदा हुए गतिरोध को समाप्त करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिनों अपने अगले आदेश तक कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगा दी और चार सदस्यीय समिति का गठन भी कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित चार सदस्यीय समिति में प्रतिष्ठित कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी, इंटरनैशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) में दक्षिण एशिया के पूर्व निदेशक डॉ. प्रमोद जोशी, भारतीय किसान यूनियन और अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष भूपिंदर सिंह मान और शेतकरी संगठन के अनिल घन्वत शामिल हैं। किसान संगठनों ने अदालत द्वारा कृषि कानूनों के क्रियान्वयन पर रोक लगाने के कदम का स्वागत किया है। लेकिन कहा कि किसान संगठन जिस चीज की मांग कर रहे हैं, वह इसका समाधान नहीं है क्योंकि कानूनों का क्रियान्वयन कभी भी बहाल किया जा सकता है। किसान संगठनों ने समिति के गठन को यह कहते हुए खारिज किया है कि इसमें शामिल लोग पहले भी तीनों कृषि कानूनों का सक्रियता से समर्थन कर चुके हैं और इसे सही ठहरा चुके हंै। मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे की अध्यक्षता वाले पीठ ने कहा कि अदालत द्वारा नियुक्त समिति सरकार के साथ ही साथ किसान संगठनों के प्रतिनिधियों तथा अन्य हितधारकों से बात करेगी और अपनी पहली बैठक के दो महीने के अंदर शीर्ष अदालत को इस बारे में सुझाव सहित रिपोर्ट सौंपेगी। अंतरिम आदेश में शीर्ष अदालत ने समिति को निर्देश दिया कि वह 10 दिन के अंदर अपनी पहली बैठक आयोजित करे। समिति की बैठक नई दिल्ली में होगी। पीठ ने कहा कि समिति गठित करने का मकसद कृषि कानूनों को लेकर किसानों की शिकायतें सुनना तथा इस बारे में सरकार की राय जानना और उन सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए सुझाव देना है। अदालत ने कहा कि तीन कृषि कानूनों - कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवद्र्घन और सुविधा) अधिनियम, 2020, आवश्यक जिंस (संशोधन) अधिनियम, 2020 और मूल्य आश्वासन तथा कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तीकरण एवं सुरक्षा) समझौता अधिनियम, 2020 पर अमल अगले आदेश तक स्थगित रहेगा। पीठ ने कहा कि अदालत इस बात को ध्यान में रखते हुए अंतरिम आदेश पारित कर रही है कि दोनों पक्ष इसे समस्या के समाधान के लिए उचित, निष्पक्ष और अच्छी भावना के साथ लेंगे। अदालत ने शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन करने और किसी तरह की अप्रिय घटना नहीं होने देने के लिए आंदोलनकारी किसानों की सराहना भी की। अदालत ने कहा हम शांतिपूर्ण विरोध को नहीं दबाएंगे लेकिन हमारा मानना है कि कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगाने का यह असाधारण आदेश कम से कम वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस तरह के आंदोलन की उपलब्धि के तौर पर देखा जाना चाहिए। किसान संगठनों को अपने सदस्यों को वापस लौटने तथा आजीविका के काम में लगने के लिए भी समझाना चाहिए।Ó मामले की अगली सुनवाई आठ हफ्ते बाद होगी। सर्वोच्च न्यायालय ने इन कृषि कानूनों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने तथा दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के विरोध प्रदर्शन से संबंधित याचिकाओं के एक हिस्से की सुनवाई के दौरान यह अंतरिम आदेश दिया है।केन्द्र सरकार और किसान संगठनों के नेताओं में 15 जनवरी को होने वाली बैठक में उपरोक्त स्थिति को देखते हुए कोई ठोस परिणाम तो निकलने की संभावना कम ही है। इस स्थिति को भांपते हुए किसान संगठन 26 जनवरी को दिल्ली में ट्रैक्टर परेड निकालने की तैयारी में लगे हुए हैं। किसान नेता जिस तरह संघर्ष को तेज करने में लगे हुए हैं उसे उनकी जिद्द भी कहा जा सकता है और बढ़ती अविश्वास की भावना भी कही जा सकती है। किसान संगठनों को पहले केंद्र सरकार के प्रति अविश्वास था अब न्यायालय और न्यायालय द्वारा बनाई गई चार सदस्यीय कमेटी पर भी किसान संगठन अविश्वास ही प्रकट कर रहे हैं।
धरातल का सत्य यह है कि सरकार या न्यायालय ने जो भी कदम अब तक उठाए हैं वह संविधान की सीमा में रहकर तथा लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुसार ही उठाए हैं। लोकतंत्र में हर किसी को अपनी बात अहिंसात्मक तथा लोकतांत्रिक ढंग से कहने का अधिकार है। इसी के तहत किसान भी अपनी बात रख रहे हैं लेकिन व्यवस्था के प्रति अविश्वास को उचित नहीं कहा जा सकता। किसानों में बढ़ती असुरक्षा की भावना को देखते हुए पिछले दिनों प्रो. आर.एस. देशपांडे (पूर्व निदेशक इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक चेज बंगलुरु) ने केंद्र सरकार को निम्न बिन्दुओं पर विचार करने का सुझाव दिया था। छ्व भारत सरकार सभी राज्य सरकारों को एक एडवाइजरी जारी करने पर विचार कर सकती है कि संसद द्वारा पारित कृषि कानूनों पर राज्य विधानसभाओं में चर्चा की जाए और प्रत्येक राज्य सरकार क्रियान्वयन के बारे में उचित निर्णय ले सकती है। यह किसानों की चिंता को दूर करेगा। क्योंकि केंद्र सरकार किसी भी राज्य में इन्हें लागू नहीं करेगी, यदि राज्य के किसान इससे सहमत नहीं हैं, इसकी सूचना संबंधित राज्य सरकारों को केंद्र सरकार को देनी चाहिए। छ्व एमएसपी को हटाया नहीं जाएगा और इसलिए एपीएमसी को भी। खरीददार के लिए एमएसपी से नीचे नहीं खरीदना अनिवार्य किया जा सकता है और यदि किसान रिपोर्ट करता है तो राज्य सरकार को कठोर कार्रवाई करनी चाहिए। इसे लागू करना राज्य सरकार की जिम्मेदारी होगी। एपीएमसी को बंद करने का सवाल नहीं उठता क्योंकि यह राज्य के अधिकार क्षेत्र में आता है। छ्व एमएसपी का क्रियान्वयन और खरीद राज्य और केंद्र सरकार की संयुक्त जिम्मेदारी होगी। केंद्र सरकार इस उद्देश्य के लिए आनुपातिक धन आवंटित कर सकती है। छ्व राज्य सरकार को उनकी विधानसभाओं द्वारा कानूनों को अपनाने की स्वतंत्रता देना उपयोगी होगा। एमएसपी और खरीद प्रबंधन को भी राज्य सरकारों को सौंप दिया जाना चाहिए।
गौरतलब है कि पिछले वर्षों में कृषि मंत्रालय ने एमएसपी के प्रभाव को लेकर एक अध्ययन कराया था उसमें यह बात सामने आई थी कि इसका लाभ केवल पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों को ही मिल रहा है, शेष देश के किसान इस योजना के लाभ से वंचित हैं। सरकार की मंशा तो सारे देश के किसानों के हित को सुरक्षित रखने की है लेकिन कईयों के हित प्रभावित हो रहे हैं। इसी को आधार बनाकर किसान के कंधे पर राजनीतिक दल राजनीति भी कर रहे हैं। गतिरोध का दबाव न झेलते हुए तथा किसानों के साथ खड़े रहने की घोषणा करते हुए भारतीय किसान यूनियन के भूपिंदर सिंह मान ने चार सदस्यीय समिति से हटने की घोषणा कर दी है। समय की मांग तो यह थी कि मान समिति में रहकर किसानों के हितों को लेकर बात करते व किसानों को राहत दिलवाने में उनके सहायक होते। भूपिंदर सिंह का समिति से हटना दर्शाता है कि गतिरोध के कारण पैदा हुआ तनाव व दबाव साधारण आदमी के लिए झेलना मुश्किल है। गतिरोध तो तभी समाप्त होगा जब किसान संगठन और केंद्र सरकार व्यवहारिक होकर कदम उठाएंगे। न्यायालय ने दोनों वर्गों को एक अवसर दिया है, इसका लाभ दोनों को उठाना चाहिए। सांभर