दिल्ली के शाहीन बाग में संशोधित नागरिकता कानून के विरुद्ध लम्बे समय तक चले धरने और रोष प्रदर्शन विरुद्ध वकील अमित साहनी की याचिका पर सुनवाई करते हुए देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एक बहुत महत्वपूर्ण निर्णय दिया है। जो आने वाले समय में होने वाले आंदोलनों के लिए दिशा-निर्देश तो होगा ही साथ ही देश की राजनीति को भी नई दिशा देने में सहायक होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संसदीय लोकतंत्र में संसद के भीतर और बाहर शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन व आंदोलन किया जा सकता है पर शाहीन बाग जैसे सार्वजनिक स्थल को अनिश्चितकाल के लिए आंदोलन के नाम पर अवरुद्ध करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। शांतिपूर्ण प्रदर्शन और आंदोलन के अधिकार का अदालत समर्थन करती है पर ऐसे आंदोलन केवल निर्धारित स्थान पर ही किए जा सकते हैं।अदालत ने सरकारी एजेंसियों की खिंचाई करते हुए कहा कि दिल्ली पुलिस को यह रास्ता खुलवाने के लिए पहले ही खुद कार्रवाई करनी चाहिए थी। जजों ने ऐसी स्थिति से निपटने के लिए अदालत की आड़ लेने की प्रवृत्ति को अनुचित बताया। जजों ने कहा कि शाहीन बाग जैसे सार्वजनिक स्थलों को अवरोध मुक्त रखा जाना चाहिए। ऐसे मामलों में सरकारों अधिकारियों को तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए और अदालत के आदेश का इंतजार नहीं करना चाहिए। गौरतलब है कि दिसंबर 2019 में संसद से पारित सीएए कानून के खिलाफ शाहीन बाग में धरना शुरू हुआ था। यह अनिश्चितकालीन धरना करीब तीन महीने तक शांतिपूर्ण ढंग से जारी रहा। इसकी दुनिया भर में खासी चर्चा भी हुई थी। पुलिस इस धरने को खत्म नहीं करा पाई थी। हालांकि इसके कारण दक्षिणी दिल्ली और नोएडा के बीच कालिंदी कुंज होकर आने जाने वालों को खासी परेशानी हुई थी। बाद में कोरोना संक्रमण के कारण लागू हुई राष्ट्र्रव्यापी पूर्णबंदी के मद्देनजर धरना मार्च में खत्म हो गया था। अदालत ने कहा कि संसदीय लोकतंत्र में असहमति और शांतिपूर्ण विरोध का अधिकार वाजिब है। पर विरोध के अधिकार और सडक़ अवरुद्ध करने के बीच संतुलन बनाना होगा। शाहीन बाग हो या कहीं और, सार्वजनिक स्थलों पर अनिश्चितकाल के लिए कब्जा नहीं किया जा सकता। इसमें कोई दो राय नहीं कि विरोध का अधिकार संविधान में दिए गए अधिकारों में शामिल है। लेकिन सरकारी एजेंसियों की इजाजत लेकर ऐसे विरोध प्रदर्शन निर्धारित स्थान पर ही किए जा सकते हैं। दिल्ली हाईकोर्ट ने इस मामले में दिल्ली पुलिस को कार्रवाई कर रास्ता खुलवाने का आदेश भी दिया था पर पुलिस प्रदर्शनकारियों के साथ बातचीत ही करती रही। कार्रवाई न करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस की आलोचना भी की। दिल्ली के शाहीन बाग में अनिश्चितकाल के लिए लगा धरना केंद्र सरकार को बदनाम करने की एक बड़ी साजिश थी। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प की दिल्ली यात्रा के दौरान इसने उग्र रूप ले लिया था। इस बात को समझते हुए केंद्र सरकार ने दिल्ली पुलिस को सख्त कार्रवाई करने के लिए आदेश नहीं दिया। दिल्ली पुलिस उस समय बेबस सी थी। हां धरने और रोष प्रदर्शनों के विरुद्ध दिल्ली पुलिस के धैर्य व अनुशासन की एक तरह से अग्नि परीक्षा अवश्य हो गई। देश के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की भावना को जन साधारण के साथ-साथ राजनीतिक दलों व नेताओं को गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। लोकतंत्र में अपनी बात कहने व रोष प्रकट करने का अधिकार तो है, लेकिन बात अगर हिंसक ढंग से कही जाए व दूसरे की भावना को ठेस पहुंचाने के हिसाब से कही जाए तो वह लोकतंत्र के सिद्धांत के विरुद्ध ही है।सर्वोच्च न्यायालय ने रोष प्रदर्शनों के लिए प्रशासन से इजाजत लेने व निर्धारित स्थान पर करने की बात कही है, ताकि जन साधारण को परेशानी न हो। तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि स्थानीय प्रशासन प्रदेश सरकार के प्रभाव में होता है और प्रदेश सरकार विपक्षी दलों व अपने विरोधियों को रोष प्रदर्शन व धरने देने की जल्द इजाजत ही नहीं देती। इस कारण भी कई बार सार्वजनिक स्थलों पर धरने व रोष प्रदर्शन होते हैं। न्यायालय द्वारा दिया फैसला ऐतिहासिक भी और जन साधारण को राहत देने वाला भी है। प्रदेश व देश की सरकारें अगर न्यायालय द्वारा दिए फैसले की भावना को समझते हुए तथा राजनीतिक लाभ-हानि से ऊपर उठकर अगर उपरोक्त पर सोच विचार कर अमल करेंगे तो इससे राजनीति में भी सकारात्मक परिवर्तन आएगा और जन साधारण को भी राहत मिलेगी।
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Sunday, October 11, 2020
सार्वजनिक स्थलों पर आंदोलन संपादकीय
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