राजमाता विजयाराजे सिंधिया में पारस पत्थर की तरह सादगी थी। उनसे मिलकर लगता था जैसे किसी साधु से मिलकर आए हो। वे राजनीति करती जरूर थी, लेकिन उनके कामकाज में राजनैतिक गुटबाजी या महत्वकांक्षी नहीं थी। उनकी राजनीति मूल्यों की राजनीति थी। वे विचारधारा को सर्वोपरि मानती थी। मध्यप्रदेश के होने के नाते राजमाता से मेरा मिलना जुलना अक्सर रहा। मैंने उन्हें कई मौको पर करीब से देखा। जाना और समझा भी। मैंने देखा वे राजनैतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अपने मूल्यों से समझौता करने के खिलाफ थी। मुझे याद है , मैं उन दिनों युवा मोर्चा में कार्य करता था। हमने भोपाल में युवा मोर्चा की ऐतिहासिक रैली की। चारों तरफ खूब चर्चा भी हुई। लेकिन स्वाभाविक था। कुछ आलोचना भी हुई। जैसे कार्यकर्ताओं ने हुड़दंग की या फिर रैली में शामिल होने आए कार्यकर्ता बिना टिकिट आए। इस तरह की खबरें राजमाता जी के पास पहुंची। वे नाराज थी। हम लोगों को बुलाया गया। उन्होंने अपनी नाराजगी जाहिर की। कहा कि इस बात का ध्यान रखना हमें अपना चरित्र और आचरण सदैव उच्चकोटि का रखना होता है। राजनैतिक जीवन में इन चीजों से कभी भी समझौता नहीं किया जा सकता। वे सरल भी थी और इच्छाशक्ति की पक्की भी। फिर हम लोगों को अपनी बात कहने का मौका मिला। मैंने कहा कि राजमाता साहब इन आरोपों में कई झूठे और राजनैतिक है। फिर भी मैं इसकी जांच करूगां। जो भी कार्यकर्ता इस तरह की गलत हरकत में शामिल पाया गया। उसके खिलाफ कार्यवाही करूंगा। लेकिन राजमाता ने उस दिन हमें यह पाठ पढ़ा दिया कि साध्य के साथ साथ साधन भी पवित्र होना चाहिए। हमें अपनी राजनैतिक सफलता के लिए अपने मूल भूत आदर्शों से कभी समझौता नहीं करना है। भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा उसके कार्यकर्ताओं की पूंजी है। उसे हमेशा अपने साथ रखना है। राजमाता सिंधिया के पास साधन भी थे। नाम भी था। वैभव भी था। वे चाहती तो आराम से अपना जीवन व्यतीत कर सकती थी। उन्हें वो सब हासिल था जिसके लिए व्यक्ति संघर्ष करता है। वे आरामदायक जीवन व्यतीत कर सकती थी। लेकिन उन्होंने जनता की सेवा को अपना लक्ष्य बनाया। आपातकाल के दौरान वे जेल में रही। वे चाहती तो जेल के कष्टों से बच सकती थी। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। जिन भी लोगों ने उन्हें करीब से देखा है वे सभी जानते है कि किसी भी पद या सम्मान की उन्हें लालसा नहीं थी। वे पूरे जीवन भर जनता की सेवा करती रही। उनके व्यक्तित्व में गजब की सादगी थी। मैंने अनुभव किया कि उनके अंदर सादगी के साथ साथ पारस पत्थर की तरह कौशल था कि वह किसी को भी सोना बना दे। उनसे बातचीत करके हर कार्यकर्ता उत्साहित हो जाता था। उनके स्वभाव में आत्मीयता अनुकरणीय थी। उनसे मिलकर इस बात का कभी आभास नहीं होता था कि हम एक कार्यकर्ता है और वे हमारी राष्ट्रीय नेता है। वे कार्यकर्ता से उसके ही स्तर पर आकर उससे बातचीत शुरू करती थी। कार्यकर्ता कुछ ही देर मे उनसे बातचीत करता हुआ सहज हो जाता था।अपनी मन की बात कहने लगता था। और जो पूर्वाग्रह वह पालकर लाता है। वह उनकी आत्मीयता की नदी में घुल जाता था। उनकी संगठनात्मक क्षमता गजब थी। वे जिससे मिलती थी वह उनका हो जाता था। कभी कभी यह सोचकर यकीन नहीं होता कि राजमाता हमारे बीच नहीं है। उनकी चैतन्यता और उनकी आत्मीयता मेरी स्मृतियों में आज भी उतनी ताजी है जितनी सालों पहले थी। उनके योगदान को पार्टी हमेशा याद रखेगी। उनकी स्मृतियां मेरे लिए सम्मान का विषय है और मेरे लिए अमूल्य निधि है। उनकी जनशताब्दी पर 100 रुपये के सिक्के को माननीय प्रधानमंत्री के हाथों देश को लोकार्पित करते देखकर हम सब गौरवान्वित हैं।
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Tuesday, October 13, 2020
राजमाता विजयाराज सिंधिया थीं सादगी की एक मिसाल. संपादकीय
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