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Tuesday, May 21, 2019

लखनऊ (उत्तर प्रदेश ) 😢 पटरी दुकानदार कहाँ जाए तो कहां

*पटरी दुकानदार कहाँ जाएंगे*


इस समय राजधानी लखनऊ में अतिक्रमण के ख़िलाफ़ नगर निगम का अभियान ज़ोरों पर है|
हालांकि इस तरीके के अभियान यदा-कदा चलते रहते हैं| पर इस बार का अभियान इस मायने में खास है, की उच्च न्यायालय की सक्रियता दिख रही है| मसला यूँ है कि उच्च न्यायालय में लगी याचिका पर न्यायमूर्तियों ने पूरे शहर को अतिक्रमण से मुक्त करने का आदेश दिया है|
साफ-सफाई, पॉलीथिन,कूड़ा-कचड़ा सड़कों पर लगी दुकाने जो भी बाधक हैं,उन्हें हटाया या ध्वस्त किया जाये| नगर निगम के लिये ये आदेश स्वयं में एक चुनोतीं और गले कि फांस है|
मौज़ू ये है कि एक तरफ पर्यावरण बोर्ड में नगर निगम पर सफाई को लेकर जहां पांच करोड़ का जुर्माना किया है,वहीं दूसरी तरफ उच्च न्यायालय ने साफ-सफाई गंदगी को लेकर नगर आयुक्त के खिलाफ सख्त कार्यवाही करते हुए एक वर्ष का वेतन जमा करने को कहा है|


जहां तक अतिक्रमण,गंदगी का सवाल है तो पूरा शहर कुछ इलाक़ो को छोड़ कर इसकी चपेट में है| जितने भी फ्लाईओवर हैं, वह अतिक्रमण से पटे पड़े हैं| शहर की खास बाजारें पुराने और नए लखनऊ में खुद दुकानदारों ने घेर रखी हैं|
फुटपाथ शहर से गायब हैं,और जो पिछली सरकार में साइकिल पाथ बनाये गए थे,उस पर सब्जियां बिक रही हैं,ठेले लगे हैं,मोटर साइकिलें खड़ी हो रही हैं|
एक तरह से साइकिल पाथ आपको गायब मिलेंगे |
विडंबना तो यह है कि पैदल यात्रियों के लिये शहर में फुटपाथ तो बचे नही थे,इसलिए वो इसका ही उपयोग कर रहे थे| शहर की गलियों में चलें जाएं तो वो अगर आठ से दस फुट चौड़ी होगी,तो लोगों ने स्नानागार और शौचालय तक बना रखे हैं| इस्से बड़ी त्रासदी क्या होगी,कि शहरों दुकाने कुछ कि तो चार फीट कि होंगी,लेकिन सड़क पर आठ फ़ीट का कारोबार फैला होगा|
बड़े दुकानदारों का तुर्रा ये है कि उनका आधा समान सड़क पर होगा | दूसरी तरफ शहर में लगभग हर बड़ी बाजार में पार्किंग है,लेकिन दुकानदार अगर उसकी दुकान या आफिस मुख्य रोड पर है,तो वो बगल से जाने वाली सड़कों पर लाइन से अपना चार पहियाँ वाहन खड़ा करते है|
ये सारी स्थिति या जाम तथा अतिक्रमण यकायक पैदा नही हुआ,बल्कि एक लम्बे समय कि कवायद है| कहने कि ज़रूरत नही है शहर की मुख्य बाज़ारों कैसरबाग,अमीनाबाद,आलमबाग,रकाबगंज,चौक,गोमतीनगर, अलीगंज (पुराना हनुमान मंदिर)
इन्दिरानगर,निशातगंज,मुंशीपुलिया,वगैरह में अतिक्रमण कि वजह से यातायात इतना संकट तलब है कि निकलना मुश्किल होता है|
कितनी सरकारें आयीं गयीं,कितने न्यायिक आदेश पारित हुए स्थिति कमोबेश जस कि तस रही| होता क्या है की इधर अतिक्रमण हटा, दस्ता गया और जाते ही बाजार सज गया|
इन सारी स्थितियों का ज़िम्मेदार प्रशासन है|
क्यों नही प्रशासन के विभिन्न तबके अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी तय करके,अतिक्रमण के खिलाफ सुनिश्चित कार्यवाही को अंजाम देते हैं.? अतिक्रमण के खिलाफ आज तक संबंधित थाना प्रभारियों नगर निगम के क्षेत्रीय अधिकारियों को क्यों नही ज़िम्मेवार ठहराया गया| क्यों नही इनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करते हुए एक्शन लिया गया|


कभी भी प्रशासन सख्त और आवश्यक कार्यवाही करते हुए निरंतरता और फालोअप के साथ अतिक्रमण अभियान को अमली जामा नही पहनाता है| कारण कुछ भी हो लेकिन एक बात तो साफ है, एक तरफ पुलिस प्रशासन दूसरी तरफ नगर निगम सड़क पर छोटा-मोटा धन्धा कर अपना गुज़र -बसर करने वाले लोगों से अलग-अलग तरीके से लेवी वसूलता है,पर जब अभियान मुस्तैदी के साथ इन लोगों पर क़हर ढ़ाता है,तो इन्हें इन दोनों में से बचाने कोई नही आता| हक़ीक़त में भ्रस्ट प्रसाशन और ब्यवस्था मनुष्य को रिश्वतखोर बनाती है| और रिश्वत के ज़रिये धंधे से लेकर न्याय तक किसी को भी खरीदा और बेचा जा सकता है| लोगतंत्र की शायद सबसे बड़ी यही खूबी है की आपकी पहुंच सत्ता तक हो या फिर माफिया हो,हर गुनाह न्याय में तब्दील हो जाता है|


पटरी दुकानदारों या ठेला खोमचा लगाने वालों की एक बहुत बड़ी तादाद है| बताने की ज़रूरत नही है लाखों लोगों का परिवार छोटे-मोटे धंधों से ही चलता है| इनकी स्थिति बिल्कुल वैसी ही है कि कुआं खोदेंगे तो पानी मिलेगा|
इनकी ज़िन्दगी को बारीकी से देखेंगे तो कइयों की सड़क के किनारे धंधा करते दो पीढ़ियां गुज़र गयी| कितनी तो ऐसी हालात की मारी माएं मिलेंगी जिनका ठिकाना और धंधा फुटपाथ के साये में ही चलता है|
इनमे ऐसे भी बहुत हैं जिनके पास भारतीय नागरिक होने का पहचान पत्र भी नही होगा|
इन पटरी दुकानदारों की स्थिति है की एक तरफ आने जाने वाले ग्राहकों का कोपभाजन बनते हैं,वहीं दूसरी तरफ ज़ीने के अधिकार से प्रशासन की तरफ से वंचित किये जाते है| दोनों तरफ की यातनाओं से प्रतिदिन जूझने के बावजूद भी इनके जीवन का संघर्ष बेमिसाल है| सवाल यह है कि जीवन ज़ीने के संकट से झूझ रहा आम आदमी वयवस्था की नज़र में नकारा या जानवर है या फिर वयवस्था इसकी ज़िम्मेदार है|


अतिक्रमण के सवाल पर प्रशासन या न्याययिक सक्रियता हस्तक्षेप करती है तो पटरी दुकानदारों से तीन गुना ज़्यादा सड़क पर कब्ज़ा करने वाले दबंगों, व्यापारियों,दुकानदारों पर कोई कार्यवाही क्यों नही करती|
एक लम्बे समय से सड़क पर काम करने वाला पटरी दुकानदार अगर उजाड़ा जाता है,तो उसके और परिवार के ज़िंदा रहने की कोई वैकल्पिक व्यवस्था प्रशासन की नज़र में क्यों नही है|
किसी को उसकी जड़ से,उसकी अस्मिता से,उसके जीवन से खत्म करने का नैसर्गिक अधिकार वयवस्था और न्याय पर बैठे लोगों को किसने दिया है| मसला यह है की शहर की गंदगी को साफ करो, लोगों के जीवन को उच्चतर बनाओ,स्मार्ट सिटी बनाओ,शहर का आधुनिकीकरण करो,लोगों को बेहतर स्वास्थ्य शिक्षा से लैंस करो,पर भय्या अगर रोज़गार नही पैदा कर सकते हो,तो आदमी की लाशों पर विकास कि दुदुंभी न बजाओ


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